Tuesday, February 15, 2011

गाँधी जीवन दर्शन पर लोक संवाद


गाँधी जीवन दर्शन केवल पढने लिखने के लिए नहीं है , वरन हममें से हर एक के लिए संपूर्ण जीवन को जीने के लिए एक सहज , सुलभ , प्राकृतिक तौर तरीका है| आज की दुनिया का जो स्वरुप उभरा है वह अपनी-अपनी समझ से अपने जीवन काल में आजतक मनुष्यों ने जो प्रयत्न किये, उसका कुल नतीजा आज की हमारी दुनिया है. आज की दुनिया की अच्छाइयों - बुराइयों या सुविधा और समस्याओं का पूरा श्रेय आज तक पैदा हुए  मानव समाज को है. आज के काल में मनुष्यों की संख्या और गतिविधि इतनी ज्यादा बढ़ गयी है कि हममे से हर एक मनुष्य की जीवन शैली या दैनन्दिन जीवन की गतिविधियों से सारी दुनिया के प्राकृतिक जीवन क्रम पर विनाशकारी असर बढ़ता ही जा रहा है. आज की हवा, पानी, जमीन यानी प्रकृति के हर आयाम के सामने एक अलार्म बज रहा है कि जल, जंगल, जमीन का अस्तित्व खतरे में है. दुनिया कि कोई सरकार अकेले या मिलकर दुनिया में धरती के जीवन क्रम के समक्ष खड़े आसन्न संकट से निकलने का समाधानकारी रास्ता नहीं निकाल सकती. जल, जंगल, व जमीन को बचाने का रास्ता हम सब को मालूम है, पर हम अपनी आज की बनी बनाई या आरामग्रस्त जीवनशैली के लोभ-लालचवश, प्रकृति के जीवन क्रम को ही समाप्त करने की  दिशा में जानते समझते बूझते हुए भी व्यक्ति, परिवार, समाज, राष्ट्र या दुनिया के स्तर पर अंततः विनाशकारी सिद्ध होने वाली जीवन शैली को छोड़ने की दिशा में बढ़ नहीं पा रहे है. गांधीजी जैसा मानते थे वैसा जीवन में करते भी थे. उनका जीवन क्रम ही हम सबके लिए सबसे बड़ा सन्देश है.

इसी भूमिका के साथ अक्टूबर २००८ में देवी अहिल्या विश्वविद्यालय के एजुकेशनल मल्टीमीडिया रिसर्च सेण्टर के माध्यम से देशभर के विश्वविद्यालयीन छात्रों के लिए यू.जी.सी. के कार्यक्रम के तहत गाँधी दर्शन को समझने की दृष्टी से "गाँधी कल आज और कल" तथा "वर्तमान की चुनौतियां और गाँधी दर्शन" शीर्षक से दिए गए व्याख्यान आज की दुनिया के समक्ष खड़ी समस्यायों के व्यक्तिगत एवं सामाजिक समाधानों  की सामूहिक दृष्टी विकसित करने की पहल एवं लोकसंवाद की दृष्टी से प्रस्तुत हैं





















हिन्दू - मुसलमानों की ज़िन्दगी की सच्चाई




आम हिन्दू और आम मुसलमान मूलतः दिन भर मिलजुलकर एक दुसरे कि ज़िन्दगी की बेहतरी के लिए काम करने वाले लोग है| वे जब आपस में एक दुसरे को अपने-अपने कम धंधों के बीच मददगारों की तरह मिलते हैं तो उन्हें याद नहीं आता की वे हिन्दू या मुसलमान हैं| पर हिन्दू या मुसल्मानूं की तथाकथित अस्मिता या अधिकारों के लिए काम करने का स्वांग रचने वाले संगठन अपनी-अपनी नकारात्मक रणनीति एवं हरकतों से हिन्दू और मुसलमान की मिलजुलकर एक दुसरे के लिए काम करते रहने की सदियों पुरानी विरासत को ख़त्म करने पर दिखलाई पड़ते हैं|

हिन्दू और मुसलमानों के हितों की रक्षा करने का दावा या झंडा उठाने वाले संगठन और समूह अपने नकारात्मक लक्ष्यों के कारण हिन्दू-मुसलिम की सांझी ज़िन्दगी में अलगाव का अभियान विचारपूर्वक पूर्ण कालिक वेतन भोगी कार्यकर्ताओं को तैयार कर चला रहे हैं|

हिन्दू मुस्लिम ही नहीं सारी मनुष्यता के जीवन मूल्यों के ही पूरी तरह से विपरीत हैं| इसी कारण ऐसे सांप्रदायिक संगठनो एवं उन्मादी आतंकी जेहादी समूहों की कार्यप्रणाली से हिन्दू और मुसलमानो दोनों के ही एक जैसे बुनियादी सवालों का स्थायी हल निकालने की पहल के बजाये हिन्दू और मुसलमानों की ज़िन्दगी को अकारण कठिन एवं कष्टप्रद बनाने का ही काम किया है|                                                            

हिन्दू-मुस्लिम हितों की प्रथक प्रथक बाते करने वाली जमातों ने ही हिन्दू-मुस्लिमों के मन में सांप्रदायिक एवं आतंकवाद जैसे मनुष्य विरोधी विचार का भूत खडा किया है| उसे स्पष्टता के साथ ही जानना , समझना और बचाना जरूरी है| भारत के लोक जीवन में जानबूझकर फितरत खड़ी करने वाले संगठनो ने हिन्दुओं के मन में मुसलमानों के प्रति और मुसलमानो के मन में hinduon के प्रति जो नफरत एवं अविश्वास का भाव एवं भावना खड़ी करने का प्रयास किया है वह भारत के व्यापक लोकजीवन की सच्चाई नहीं है| भारत में लोक जीवन की हकीकत को समझने के लिए यदी हम भारत के हर हिस्से में बसे हिन्दू और मुसलमानों के बीच प्रतिदिन की जरूरतों को लेकर होने वाले
सामान्य लोकव्यवहार को देखे तो हमें नज़र आवेगा कि हिन्दू और मुसलमान हिल मिलकर भारत भर में किस तरह एक दुसरे कि रोजगार कि जरूरतों को पूरा करने के लिए दिन रात जुटे हुए हैं|

भारत भर में इन दिनों मोटर वाहनों की संख्या में विस्फोटक रूप से वृद्धि हुई है|दो पहिया हो या चार पहिया मोटरवाहन इनमे कैसी भी रुकावट या खराबी कही भी आती है तो उसे तत्काल सुधारकर फिर से गतिशील कर देने वाला कुशल कारीगर हमारे देश का मेहनतकश युवा ही प्रायः होता है| हमारे घरों में लोहे का फर्नीचर , पलंग , अलमारी आज के जमाने में निश्चित रूप से होते ही है








  

अनपढों के सहज भाव पढ़े लिखों के जटिल अभाव- अनिल त्रिवेदी


आज की दुनिया में पढ़े-लिखे समझदार लोगो की जिंदगी में प्रायः सरलता-सहजता का अभाव क्यो महसूस होने लगा है? अधिकतर अनपढों की जिंदगी आज की दुनिया में भी उतनी ही सहज-सरल दिखाई पड़ती है जितनी पहले की दुनिया में थी। क्या पढ़ाई-लिखाई जीवन की सरलता को जटिलता में बदलने वाली वैचारिक क्रिया है? जिस सहजता-सरलता से अनपढ़ आदमी खाली जमीन पर बैठ या सो लेता है। पढ़े लिखे व्यक्ति को खाली जमीन पर बैठना और सोना या लेटना एक असहज या जटिल कार्य लगता है। उसे खाली जमीन और शरीर के बीच कोई व्यवस्था चाहिए । गाँवों में बसने वाले करोड़ो स्त्री-पुरूष-बच्चे उम्रभर नंगे पैर ही सहजता से जीते रहते है। हम है की घर के अन्दर नंगे पैर रहने में भी दिक्कत  महसूस करते है।

पढ़े-लिखे समझदारो की जिंदगी की एक विशेषता यह है कि इस वर्ग का अधिकांश हिस्सा जो-जो बातें भी अपने जीवनकाल में सोचता रहता है उसकी एक भी बात वह स्वयं भले ही अपने आचरण या जीवन में न माने, अक्सर उसे लगता है बाकी सब लोगो को उसकी बात मानना चाहिए। निरक्षरों की विशेषता यह है की वे जैसा जीवन जीते है या जीवन में जो सोचते है उसे दूसरे भी माने ही, यह अपेक्षा भाव उनमे नही होता, यह भाव जरुर होता है की उनकी जिंदगी मेहनत मजूरी के बल पर खुशहाल हो जावे। यह भी अपेक्षा होती है कि जो काम उन्होंने किया है उसका निर्धारित या तय पैसा उन्हें जरूर मिल जावे । यदि नही भी मिलता है तो असीम धीरज भरी लाचारी के साथ वे चुप रहते और यह मान लेते है कि चलो आज नही तो कल या बाद में पैसा मिल जावेगा। ये कहीं भाग तो नही जावेंगे।

अधिकतर पढ़े लिखे लोगों के साथ एक दिक्कत यह है की वे स्वांग ऐसा रचते है कि वे जानते सबकुछ हैं। अनपढ़- पढ़े लिखों की उल जलूल बाते या बेसिरपैर की सलाह को भी चुपचाप सुनता है और पढ़े लिखों के सामने सिर हिलाकर उस सलाह से सहमति जताता है। भले ही बाद में पढ़े लिखों कि बिन मांगी सलाहों पर मन ही मन या खिल-खिलाकर हँसता हो कि देखो साब ने कैसी बिना सिर पैर की सलाह दी। वह प्रायः पढ़े लिखों की बात का आमने-सामने खंडन नही करता है।

अनपढ़ लोग अपना अज्ञान स्वीकारने में कभी झिझकते नही हमेशा समवेत स्वर में उदघोषणा करते रहते हैं की साब हमको क्या मालूम हम तो अनपढ़ हैं। पर पढ़े लिखों को हमेशा अपने पढ़े लिखे होने की विशिष्टता का गर्व होता है उन्हें यदि किसी अनपढ़ ने टोक दिया तो तत्काल आमने सामने ही टोकने वाले को हाथ के हाथ ही निपटा देते है कि तुम अंगूठा छाप हमें सिखाओगे ! इसमे उम्र का भी कोई लिहाज वे नही रखते। पढ़े लिखों में बहुत कम हजारों में एक ही होता है जो सहजता से अपने अज्ञान को स्वीकार करने का साहस करता है जबकि अनपढ़ अपना अज्ञान भाव सहजता से स्वीकारते हैं।

अनपढ़ खेतिहर लोग अधिकतर श्रमपूर्वक उत्पादक कार्यों को सम्पन्न करते है वे शरीर की ऊर्जा से मूलभूत वस्तुओं के उत्पादक कार्यों में ही अपनी ज़िन्दगी खपा देते हैं। पढ़े लिखे लोगों का बहुत कम हिस्सा मूलभूत उत्पादक वस्तुओं उत्पादन के काम में लगा होता है पर कुछ पढ़े लिखे लोग ऐसे भी होते है जो बिना पढ़े लिखे लोगों की ज़िन्दगी को खुशहाल बनाने के उपायों को खोजने या विपन्नों अनपढों के जीवन को संवारने में ही अपनी ज़िन्दगी का सर्वस्व कुर्बान कर देते हैं।

पगडण्डी पर चलने वाला निरक्षर आदिवासी जब शहर में आता है तो वे दस पन्द्रह की संख्या में हो या दो चार की वे हमेशा एक के पीछे एक रेल के डब्बों की तरह ही चलते हैं। पढ़े लिखे समझदार शहरी जिन्हें इस बात की पूरी जानकारी है की सड़कों पर वाहनों की संख्या इतनी अधिक है , कही भी जगह नही है भले ही वे दो हो या दस पन्द्रह हमेशा झुंड बना कर बेतरतीब रूप से रास्ते में रूकावट की तरह चलते है। उन्हें यह ख्याल भी नही आता की निरक्षर आदिवासियों का शहरी सड़क पर पगडण्डी पर चलने की तरह एक के पीछे एक चलने का तरीका अस्त व्यस्त शहरी यातायात के आत्मघाती दुष्परिनामो से बचने का एक सहज सरल तरीका है।

अधिकांश पढ़े लिखे समझ सम्पन्न लोग , पसंद ना पसंद के आधार पर खाना खाते समय अपनी थाली में कुछ न कुछ जूठन छोड़ ही देते हैं। पर अधिकांश निरक्षर विपन्न लोगो के पास तो खाने की थाली ही नही होती। वे हाथ में रोटी लेकर उसपर मिर्च की चटनी या सब्जी रखकर अपना खाना खा लेते है। प्रायः उनकी रोटी दोनों समय की भूख की मात्रा से कम ही होती है ऐसे में जूठा छोड़ने की संस्कृति यहाँ विकसित ही नही हो सकी। अक्सर पढ़े लिखे और ज्ञानवान लोग देश-दुनिया को बैठे-बैठे यन्त्र एवं तंत्र के सहारे चलाने वाले लोग होते हैं जिसमे अधिकांश को अन्न उपजाने की कष्टप्रद प्रक्रिया और उसमे लगी हाड़तोड़ मेहनत का अंदाज़ ही नही होता इसलिए अधिकांश लोग स्वाद के या पसंद ना पसंद के आधार पर खाते है जब की अनपढ़ विपन्न लोग भोजन शरीर के पोषण के लिए जो कुछ भी मिल जाए उसे ही जीवन का आधार मानकर पेट भरने के लिए खा लेते है। ऐसे लोग स्वयं भूखे रहकर भी देश दुनिया का पेट अन्न से भरने के लिए धूप, बारिश, ठण्ड और रात या अंधेरे की परवाह किए बिना अपने से ज्यादा दूसरे के पेट के लिए अन्न उपजाने का जिंदगी भर जतन करते रहते है।

पढ़े लिखे और बिना पढ़े लिखे की ज़िन्दगी का जीवन क्रम निरंतर चलता रहता है। लाखों अभावों के बाद भी अधिकांश अनपढ़ और विपन्न लोग जीवन के सारे भावों को अपने जीवन काल में महसूस करते रहते हैं पर अधिकांश पढ़े लिखे सपन्नो के मन में जीवन के भावों का इतना अधिक उतार चढाव लगातार चलता रहता है कि समस्त साधनों, सम्पदाओ से भरपूर जीवन होते हुए भी अधिकांश पढ़े लिखों के मन में जीवन के समस्त भावों की वह सहजता , सरलता और संपन्नता नही मिल पाती जो हमें हमारी पढ़ी लिखी दृष्टि से विपन्न और अनपढ़ कहलाने वाले सम्पदाहीन लोगों के जीवन में प्रायः सरलता और सहजता से दिखाई पड़ती है।

विचार की शक्ति बनाम शक्ति का विचार

इस सृष्टि में कुदरत ने मानव शरीर को मष्तिष्क के रूप में एक ऐसी शक्ति प्रदान की है, जिसके विस्तार का कोई और - छोर नही है। असीम और अनंत की तरह ही सोच -विचार के विस्तार कोई सीमा और अंत नही है, फिर भी मानव समूह ने विचारो की कई धाराओ को अपने हिसाब से बांधने की कोशिश की है। आज की दुनिया में जो कुछ भी अच्छा या बुरा घटित या सृजित हुआ हिया, उसके मूल में कहीं न कहीं, किसी न किसी मनुष्य के विचार या मनुष्यों की विचार श्रंखला का स्वरूप साकार हो जाता है।

सृष्टि पर मानव ही एक ऐसा प्राणी है, जिसने अन्य विचारों से न केवल धरती के जीवनक्रम या अन्तरिक्ष के रहस्यों को भी अपने विचार के बल पर जानने की कोशिश की है। आज तक हमें जो ज्ञान हासिल हुआ, उसके अनुसार हम अभी तक कोई ऐसा प्राणी नही खोज पाएं है, जिसने अपने विचारों की शक्ति के बल पर इतनी अधिक मात्रा में अपने वैचारिक हस्तक्षेप से इतना अधिक संहार एवं सर्जन किया है।

विचारशीलता एक ऐसा आभूषण है, जिसे मनुष्य या मानव समूहों ने हर परिस्थितियों में अपने मन में धारण कर रख है। विपन्न से विपन्न व्यक्ति से लेकर सम्पन्न से सम्पन्न मनुष्य विचार विनिमय के बिना जी नही सकता। उसके पास जितनी भी ज्ञानेन्द्रियाँ है, उन सबकी प्राणशक्ति मस्तिक्ष्क की विचारशीलता से जुड़ी हुई है।

जन्म से मृत्यु तक की जीवन यात्रा को हम ज्ञानेन्द्रियों और मस्तिक्ष्क के आपसी समन्वय को निरंतर अपने प्राकृतिक अनुभव से सहज ही सीखते हुए पूरा करते है। जीवनयात्रा में विचार ही हमें अपने जीवन के प्रश्नों, जीवन की सफलता - असफलता, मन में उपजी आशा निराशा, हिंसा-अहिंसा या प्रेम और घृणा के बीच समाधानकारी वैचारिक विकल्प सुझाकर जीवनयात्रा को कई तरह के अनुभवों से गुजरने का निरंतर अवसर देती है।

स्वयं विचार करना और विचार के स्वरुप का अन्य लोगो के साथ निजी या सामूहिक स्तर पर विनिमय या प्रचार करना जीवन की यात्रा का ऐसा आयाम है जिससे प्रत्येक मनुष्य जीवनभर प्रत्यक्ष साक्षात्कार करता है। इसी का नतीजा है की विचार कभी मरता नही, पर उसका साकार शरीर हर क्षण किसी न किस रूप में मृत्यु या विनाश की और काल क्रमानुसार जन्म से मृत्यु के छोर की सीमा में, इस सृष्टि में, हर क्षण कही न कहीं नए जन्म के रूप में, नए विचार, नए विस्तार की संभावना का नया सूर्योदय है तथा मृत्यु के रूप में पुराने विचार इतिहास से पृष्ठ के रूप में मनुष्य समाज में कही न कहीं दर्ज होते रहते है।

आज भी इस दुनिया को, हम मनुष्य की विचारशक्ति की जीवंत प्रयोगशाला
की संज्ञा दे सकते है। हमारा हर विचार इस जगत के प्राकृतिक घटनाक्रम को, अपने जीवनकाल में अनुभव करने या भोगने तक ही सीमित nahi रहा है, वरन मनुष्य ने अपने प्राकृतिक अनुभव से बचने, सुरक्षा प्राप्त करने की दिशा में अपनी विचारायात्रा को मोडा है। उदहारण स्वरुप वृक्ष का आश्रय या आवास के रूप मैं प्राकृतिक रूप से कई प्राणियों ने अपने जीवनकाल में उपयोग किया है, जैसे अन्य प्राणियों से सुरक्षा से पक्षियों ने वृक्ष की ऊंचाई या शाखाओं का उपयोग अपना घोंसला बनने में किया या कुछ पक्षियों एवं प्राणियों ने वृक्ष की प्राकृतिक रचना में शाखाओं , पत्तियों या तने या शाखाओं में बने कोटरों या स्थलों का उपयोग अपने बचाव या आश्रय स्तःल के रूप में किया। पर मनुष्य ने अपनी विचारशीलता के साथ वृक्ष के जीवन की विविध अवस्थाओं का अपने निजी और सार्वजनिक जीवन की भौतिक आवश्यकताओं के विस्तार द्वारा असंख्य रचनाओं के रूप में वृक्ष के उत्पादों एवं स्वरुप का सर्जन किया है। वह अकेला ही मनुष्य की विचार शक्ति का अनूठा दस्तावेज है , जिस पर हम सब अपना वैचारिक पराक्रम मानकर आत्ममुग्ध है। पक्षी या अन्य प्राणियों ने बिना आत्ममुग्ध हुए वृक्ष को यथावत जीवीत रहने दे कर अपना आश्रय बनाया , पर हमने अपने उपयोग , लोभ-लालच के वशीभूत हो उसके जीवन का अंत कर अपने जीवन को संवारने या विकसित करने का कर्म कर रचना और संहार का चक्र चलाया जिसने मनुष्य द्वारा प्रकृति के जीवन चक्र में निरंतर हस्तक्षेप का विस्तार किया।

अपनी विचारशीलता पर मानव को निजी एवं सार्वजनिक रूप से अत्यन्त गर्व रहा है। मानव ने विचार की शक्ति से ही शक्ति का विचार पाया है और अब वह केवल शक्ति सम्पन्न होकर भी संतुष्ट नही है। मानव अपने आप को सर्वशक्ति सम्पन्न बनाने की एकाकी दौड़ में अस्त-व्यस्त हो चुका है। आज की दुनिया की अधिकांश विचार सहक्ति अपने आप को शक्तिशाली बनाने की निजी एवं सार्वजनिक आकाँक्षाओं की अनियंत्रित दिशा को अपनाने का विचार विरोधी एवं प्रकृति विरोधी मार्ग पकड़ती दिखाई देती है। इसी का नतीजा है की एक विचार से शक्ति हासिल होने का आत्मकेंद्रित तात्कालिक लक्ष्य हासिल करने के पश्यात वही मनुष्य नए विचार का स्वागत करने के बजाये उसके दमन के उपायों की शक्ति या साधनों के विस्तार एवं स्वहित में उसके एकछत्र उपयोग की उधेड़बुन में ही प्रवृत्त होकर , विचार के नए आयामों के विस्तार या साक्षात्कार से कतराने लगता है। इस तरह विचार की गति शीलता को क्षीण करके मानव मस्तिष्क की अनंतता को रोकने का प्रयास करता है।

दुनिया में अनगिनत मोनुश्यों के निरंतर प्रयासों-प्रयोगों से वैचारिक शक्ति की गतिशीलता का उदय हुआ। विचार के विस्तार और गतिशीलता से नए जन्मे मनुष्य को दुनिया की जटिल से जटिल समस्याओं को हल करते रहने की वैचारिक विरासत और हौसला मिला है। विचार शक्ति हममे से प्रत्येक को अपने जीवन की विचारशीलता को निरंतर बढ़ते रहने का निराकार वैचारिक हथियार हमें थमा देती है , जिसके बल पर हम सब अपने निजी एवं सार्वजानिक सपनो , संकल्पों एवं समस्याओं से जूओझ कर निरंतर विस्मित एवं अनुभव सम्पन्न होते रहते है। दुनिया की कई शक्तियां आम मनुष्य को विचार से जादा औजार , साधन या तकनीक के सहारे यांत्रिक विचाजीवन की कैद में दाल कर मोनुष्य की विचार यात्रा पर विराम लगाने की ऐसी उधेड़बुन में लगी है जिसमे विचारशील मनुष्य , मनुष्य निर्मित रोबोट की तरह हुकुम के गुलाम यांत्रिक जीवन का साधन बन जाए और अनंत विविधताओं वाली विचारशक्ति , साधन सम्पन्नों की एकरस धुन पर नाचने वाला जद्वध आकर पा जाए ।

मनुष्य ने अपने विचार के बल पर मनुष्यवत यांत्रिक क्रिया दोहराने वाले यन्त्र तो निर्मित कर लिए पर क्या विचार क्षीण यांत्रिक मानव हमारे विविध आयामी जीवन के विस्तार को कम या ख़त्म कर विचार के निराकार स्वरुप के अनंत विस्तार को बाँध सकेगा ? यह आज के यांत्रिक विकासकाल का सबसे बड़ा वैचारिक प्रश्नचिंह है , जिसका उत्तर सुविधाजीवी यांत्रिक दिमाग से नही , पराकरतिक जीवंत भावः के मस्तिष्क की विचारशीलता से ही ढूँढना होगा।


विचारों के देश मैं पैसों का अखंड महाभोज


विचारों के देश मैं पैसों का अखंड महाभोज- लेखक-अनिल त्रिवेदी

भारत शुरू से ही दर्शन और विचारो का देश रहा है,लेकिन पिछले कुछ समय से यहाँ जीवन के हर क्षेत्र में विचार से ज्यादा अर्थ की ताकत निरंतर और अधिक तेजी से बढ़ रही है. यह एक ऐसा देश बनता जा रहा है,जिसमे आपको ख़ुद से भिन्न विचार वाले व्यक्ति को ख़ुद के विचार से सहमत करने के लिए विचारों की नही लोभ-लालच के साधनों हथकंडो या रणनीति की जरुरत पड़ती है|भारत में विचार का स्थान सामान्यतः लोभ-लालच या रुपयों की दुनिया के हाथों मैं केंद्रित होता जा रहा है। छोटी-मोटी सभा सोसायटी से लेकर लोकसभा जैसे सर्वोच्च सदन तक चुनकर पहुँचने के लिए परिवर्तन के वाहक विचार प्रक्रिया के स्थान पर मुद्रा का विनिमय यही आज हममे सेअधिकांश को आसन मार्ग लगने लगता है। कीसी व्यक्ति के पास बहुत पैसा है तो अधिकांश समाज उसे धनबली मानता है और उसके सानिध्य में कुछ न कुछ प्रसाद पाने की आकांक्षा या भीड़ बनाये रखने का प्रचलन हर क्षेत्र में बड रहा है,वही शुद्ध विचारशील सरस्वती पुत्र के पास शुद्ध ज्ञानार्जन की आकांक्षा लेकर आज भी इक्का-दुक्का व्यक्ति ही पहुँच पाते हैं।
विचार की कोख से जन्मा पैसा ही आज सबसे बड़ा विचारहंता हो गया। जीवन के हर क्षत्र में पैसे के अत्यधिकप्रचलन से बाहर करने की राह पकड़ ली है। यही कारण है की समाज विचार पर केंद्रित होने की बजाये पैसे पर केंद्रित होताजा रहा है। अर्थ बिना सब व्यर्थ का आदर्श जीवन हर क्षेत्र में गठरी पैठ बनता जा रहा है और अधिकांश लोगों के मन एवं जीवन में विचार निष्ठां के बजाये शुद्ध अर्थ्निष्ठा का जोर बढ़ रहा है। किसी भी तरह का पैसा समाज को सम्मोहित कर रहा है पर किसी भी किस्म का विचार समाज व्यक्ति और विचारों को सजग और चैतन्य बनने में सफल नही हो पा रहा। यह वर्तमान की सबसे बडी चुनौती है की महज पैसे की दुनिया से विचारों की दुनिया का मुकाबला कैसे करें? आज भारत की राजनीती ही नही पुरे लोकजीवन में मुद्रा का अतिरिक्त अवैध विनिमय लोकव्यवहार और दस्तूर बनता जा रहा है। आप रेल में यात्रा कर रहे है और रिजेर्वेशन चाहिए तो पैसे देकर सीट हासिल कर सकते हैं। यह एक ऐसा मान्य साधन बन गया है कही भी इस्तेमाल कर परिचित तो छोडिये अपरिचित से भी मनचाहा व्यवहार करवा सकते हैं। बच्चे में योग्यता न हो , लेकिन लाखो की कैपिटेशन फीस अदा कर मनचाही शिक्षा के लिए प्रवेश दिला सकते हैं। यह बात आम धारणा बन गई है की की जो काम नियम कायदों से सम्भव नही वह पैसे से तत्काल सम्भव हो सकता है। इसी का नतीजा है की भारत के लोकमानस में यह भ्रम आम हो गया है की पैसे की ताकत नियम कायदे से अधिक है। हमारे राज्य संवेधानिक रूप से नियम-कायदे से चलने वाले राज्य हैं। राज्य अपनी कार्यप्रणाली में किसी के साथ भेदभावपूर्ण व्यवहार नही कर सकते और यदि करते हैं तो देश के नागरिक को यह संवेधानिक उपचार उपलब्ध है की वह राज्य द्वारा किए गए भेदभाव के विरूद्ध न्यायलय में जाकर अपना अधिकार हासिल करे । इस कानूनी स्थिति के मौजूद होते हुए भी समाज में यह ग़लत धारणा बनती जा रही है की क़ानून तो दिखावटी गहना है। बिना लेन-देन कुछ भी नही होता,होगा भी तो देर से। इसलिए तुंरत कार्य कराने का व्यवहारिक तरीका क़ानून नही पैसों का लेनदेन है।
संविधान के होते हुए भी राज्य और समाज पैसे के आधार पर विशिष्टता या तत्परता से कोई कम कराने की कार्यप्रणाली विकसित कर रहे है। जैसे देश के कई धार्मिक स्थलों में ज्यादा चढावा या नकद पैसा देकर दर्शन करने वाले विशिष्टता का तमगा लिए लाइन में खडे हुए बिना सीधे गर्भग्रह में जाकर दर्शन कर सकते हैं। इस व्यवस्था पर गुस्सा या भेदभाव का अहसास होने के बजाये हम इस व्यवहारिक व्यवस्था की संज्ञा देते हैं। आपसी बातचीत में यह आम बोलचाल का मुहावरा बन गया की नौकरी में निश्चित एवं निर्धारित वेतन को सूखी तनख्वाह माना जाता है। जिन पदों पर वेतन के आलावा कोई अतिरिक्त राशि पाने की गुंजाईश न हो,उन पदों पर नियुक्त अधिकांश लोग अपनी नियति को कोसते रहते हैं की यहाँ पर तो आगे बढ़ने का मौका ही नही है। सूखी तनख्वाह में कैसे गुजारा होगा? यह दुःख आज के समाज का सबसे बड़ा दुःख बनता जा रहा है। यही वर्तमान का खुला रहस्य की हममे से आधिकांश को कंही कोई गड़बड़ नजर नही आती,क्योंकि हम तमाम तरह की आर्थिक गडबडी को लोभ-लालचवश निजी और सार्वजनिक जीवन का लोकव्यवहार बनाते जा रहे हैं।

अमन का मन बनाम मन में अमन


भारत की आबादी इंडिया की ताकत है




हुनरमंद लोगों की मेहनतकश बिरादरी


मन की यह सिकुडन भारतीय तो नहीं


ताल तलैया बनाते ही रखरखाव का खर्च शुरू


अंधी विकसित जीवनशैली


अनपढ़ का सहजभाव, शिक्षित का जटिल भाव


हिंद स्वराज से निकल सकता है संकट का हल


आम जनता का नेताओं से खुला सवाल


विचारों के देश में पैसों का अखंड महाभोज


सहजता का लोप यानी विशिष्टता की चाह


समस्याओं का समाधान या घमासान


यंत्रवत जिन्दा लोगों का मृत समाज

लोकसागर में गोताखोरी

हुनरमंद लोगों की मेहनतकश बिरादरी

भारत की आबादी इंडिया की ताकत है


भारत की आबादी इंडिया की ताकत है

भारत और इंडिया की अवधारणा आज़ाद भारत में चले विकासक्रम के आसपास ही घुमती रहती है | भारत याने प्राचीन भारत देश की विरासतवाला भारत का सामान्य वर्ग और इंडिया याने आधुनिक विकसित भारत का विशिष्ट सत्ता एवं सुविधाभोगी वर्ग | आज के भारत में इंडिया मौजूद है पर प्रायः इंडिया में हर जगह भारत की संस्कृति और सभ्यता-संस्कारों का वह स्वरुप दिखाई नहीं पड़ता जो भारत की मिटटी में हर कहीं व्याप्त है | भारत, इंडिया को देखकर खुश होता है, पर इंडिया भारत को देखकर असहज हो जाता है | विकसित इंडिया को प्रायः यह लगता है कि भारत पिछड़ा हुआ है और इंडिया को तेजी से और अधिक विकसित न होने देने का एक महत्वपूर्ण कारक है | भारत को इंडिया का विकास देखकर लगता है कि विकसित इंडिया भारत कि जड़ों को  कटता जा रहा है |
भारत और इंडिया की जीवन दृष्टी, भाषा, भूषा, भवन, सोच, व्यवहार, रहन सहन एवं प्राथमिकता में अंतर बढ़ता ही जा रहा है | इंडिया का सपना समूचे भारत को इंडिया का अनुगामी बनाना है पर भारत के अंतर्मन में समग्र भारत को इंडिया की छाया प्रति बनाने देने का भाव नहीं है | भारत एक बहुत सरल, सहज पर गहरे वाले दर्शन कि उत्पादक, श्रमसाध्य कर्म प्रधान-जीवन शैली का नाम है | जबकि इंडिया की सतही, आरामदायक, चकाचौंधवाली, उपभोक्ता संस्कृतिवाली जीवन शैली है | इंडिया राज करना चाहता है जबकि भारत को स्वराज्य, स्वावलंबन, सादगी प्राकृतिक रूप से पसंद है | भारत किसी पर राज करना नहीं सबको साथ रखना चाहता है | भारत शांत, सहज, प्राकुतिक जीवनक्रम का हामी है पर इंडिया को भागमभाग एवं नित्य की अस्त व्यस्तता के बिना चैन नहीं है | भारत सबको साथ लेकर निरंतर जीना चाहता है तो इंडिया दूसरों की चिंता किये बगैर खुद आगे बह्दाना चाहता है | वैसे सामान्यतः देखा जाए तो "भारत" या "इंडिया" ये दोनों हमारे देश कि संज्ञा है | भारत और इंडिया इन दोनों शब्दों से सामान्यतः देश और दुनिया को हमारे देश  का ही स्मरण होता है | पर आजादी पाने के बाद सन्देश में जिस तरह का आधुनिक विकास का क्रम चला उससे भारत और इंडिया इन दोनों संबोधनों से देश के तथाकथित आधुनिक विकास के दो स्पष्ट धाराओं का बोध हमे होता है | इस प्रष्ठ्बूमी के सन्दर्भ में भारत और इंडिया हिंदी और अंग्रेजी भाषा के महज शब्द न होकर देश के विकासक्रम का बोध करने वाले दो शब्द हो गए है | वैसे तो व्याकरण के दृष्टी से कभी भी किसी भी संज्ञा का अनुवाद नहीं होता पर हमारे देश कि माया ही निराली है यहाँ हम देश के संज्ञा को लेकर भी मतभिन्नता रखते है, भारत और इंडिया के रूप में | भारत के विभिन्नता और विरोधाभासों  का एक अनोखा एवं अंतहीन सिलसिला जीवन के हर आयाम में चला आ रहा है पर इंडिया कि समग्र दृष्टी भौतिक-विकास और आर्थिक शक्ति पर पकड को लेकर है |  भारत जीवन के हर आयाम का प्राकृतिक प्रबंधन है तो इंडिया केवल सत्ता और व्यापर के प्रबंधन का प्रतीक है |हमारे देश के एक धारा देश के समग्र प्राकृतिक प्रबंधन के दृष्टी से भारत को भारत ही बनाये रखना चाहती है याने भारत के साधनों से भारत को स्वावलंबी, सजग एवं स्वाभिमानी देश के रूप में सतत बने रहने देना चाहती है | देश को बहुत जल्दी तथाकथित आगे ले जाने के व्यग्रता में भारत से इंडिया में बदलने की दिशा में जाने वाले भारतीय इंडियनओं की संख्या भी हर दिन बढाती ही जा रही है, यह भी आज के भारत का सच है | यह भी सच है कि भारत के सहज प्राकृतिक प्रबंधन की स्वदेशिधरा इंडिया के प्रबंधकों को पिचादापन या विकासविरोधी एवं यथा स्थिति की पोषक अवधारणा लगती है |
इंडिया तेज़ी से एकाएक विकास का भौतिक मॉडल खड़ा करना चाहता है | जबकि भारत निरंतर सहज प्राकृतिक परिवर्तन के क्रम को जीना चाहता है | आजाद भारत में लगातार विअकसित होने वाले भोगोलिक इलाकों की दृष्टी से देखें तो विकेन्द्रित रूप से पूरे भरत में फैली हु सैट लाख से अधिक छोटी-छोटी ग्रामीण बसाहटों को हम भरता का प्रतिनिधि मान सकते है और देशभर में फैली हुई कुछ हज़ार शहरी बसाहटों के सम्रध शक्ति समूहों को इंडिया का प्रतिनिधि मान सकते है | इस तरह भारत ग्रामीण बसाहटों का प्रतीक है और इंडिया निरंतर फैलाते शहरी या महानगरीय विस्तार का प्रवक्ता है | इंडिया उद्योग, व्यापार, एवं उpaभोक्ता गतिविधियों का केन्द्रित गतिविधियों का संचालनकर्ता है | इंडिया भौतिक व्यवहार का प्रबंधन है तो भारत जीवन में व्यवहार का प्राकुतिक प्रबंधन है |
भारत राज और बाज़ार से ज्यादा समुदाय की गतिविधि है | भारत में आज भी समुदाय का सीधा व्यवहार चलता है और समुदाय की ताकत राज और बाज़ार की ताकत से ज्यादा प्रभावी है | भारत के ग्रामीण हिस्सों में आज भी हात  के साप्ताहिक व्यवस्था प्रभावी है याने सप्ताह में एक दिन दैनन्दिनी जरूरतों की खरीदी बिक्रइ का व्यवहार निरधारित  है एवं इंडिया में चौबीसों घंटों, बारह माह सिर्फ बाज़ार ही बाज़ार | बाज़ार के हाल से इंडिया बेहाल, बाज़ार चढ़ा तो इंडिया खुश, बाज़ार गिरा तो इंडिया निराश |
वैश्वीकरण और खुली अर्थव्यवस्था के इस दौर में आज भी भारत की कृषि एवं पशु आधारित अर्थव्यवस्था का अपना अनोखा जीवित अर्थशास्त्र है | भारत की अर्थव्यवस्था में आज भी बकरी, मुर्गी, दुधारू पशु एवं वास्तु, अनाज या श्रम विनिमय की एक प्रभावी एवं जीवंत आर्थिक व्यवहार की प्राचीन प्रणाली सहजता एवं सफलता से चल रही है | ग्रामीण भारत का आर्थिक व्यवहार साकार, वस्तुओं ( पशु, पक्षी, अनाज ) या श्रम के विनिमय पर आधारित है जिसमे तेजी मंदी का क्रम एकाएक नहीं आता और आर्थिक विनिमय के व्यवहार के सामान तनाव न होकर शांति एवं विश्वास बना रहता है | जबकि इंडिया का सारा आर्थिक व्यवहार अब निराकार स्वरुप में आंकड़ों का खेल हो गया है | तेजी मंदी कि सुनामी इंडिया के आर्थिक व्यवहार को सतत तनावपूर्ण एवं आशंकाग्रस्त बनाये हुए है | एकाएक लखपति से करोरेपति और करोडपति से लखपति बन जाने का खेल इंडिया की अर्थव्यवस्था का आम भाव बनता जा रहा है | इंडिया का सारा आर्थिक व्यवहार शुद्ध आंकड़ों का निराकार खेल हो गया है जिसमे असंभव घटनाचक्र भी संभव है |
भारत और इंडिया की ये परस्पर विरोधी जीवन के विकास की धाराएँ एक दुसरे की परस्पर विरोधी दिखाई देना के बाद भी एक दुसरे की पूरक भी बनती जा रही है | भारत और इंडिया की एक अरब से भी ज्यादा की मनुष्य संख्या आज की दुनिया के बाज़ार का सबसे बड़ा आकर्षण है | बीस करोड़ का इंडिया अस्सी-पिच्यासी करोड़  के भारत  के कारण ही वैश्विक अर्थव्यवस्था के दौर में एक आर्थिक शक्ति के रूप में विकसित होने का आभास दे रहा है |
इंडिया की आर्थिक अर्थव्यवस्था एवं प्रबंधन अतिशय खर्च या अनुत्पादक दिखावटी खर्च या बुनियादी जीवन की जरूरतों पर ही खर्च के सिद्धांत पर आधारित है | इसीलिए इंडिया की आबादी पैसों की दुनिया की गिरफ्त में आ गयी है, जबकि भारत की अधिकांश आबादी पैसों की द्रष्टि से इंडिया के मुकाबले अत्यंत गरीब नज़र आती है, उसके पास जीवन की बुनियादी जरूरतों पर खर्च करने लायक पैसा भी नहीं है | फिर भी वह संतोष और शक्ति के साथ जी रही है |
एक तरफ बिना साधन, बिना विकास और अधोसंरचना वाली भारत की कोटि-कोटि जनता है जो जीवन के प्राकृतिक प्रबंधन के सहारे अपना जीवा शक्ति एवं संतोषी भाव के साथ जी रही है और दूसरी तरफ इंडिया का आधुनिक विकसित समाज है जिसके विकास, अधोसंराचानागत खर्चों की कोई मर्यादा ही नहीं है | अपार सम्पदा का संग्रह होने पर भी इंडिया की इच्छा आकंखाओं की तृप्ति नहीं होती| इंडिया में भावों का आभाव स्पष्ट दिखाई देता है, पर भारत में अनंत आभाव होने पर भी जीवन के सरे भाव सहजता से दिखाई देते है |
भारत और इंडिया दोनों आपस में इस तरह रच बस गए है कि उन्हें अब अलग नहीं किया जा सकता | इंडिया को यह भूलना नहीं चाहिए कि भारत की मनुष्य संक्या की नींव पर ही इंडिया के आर्थिक-साम्राज्य की अट्टालिकाएं खड़ी हुई है | इंडिया के राज और बाज़ार का साम्राज्य भारत के संख्याबल को यदि समस्या मानाने की गलती करेगा तो वह इंडिया के राज और बाज़ार की चकाचोंध को खो बैठेगा और यदि इंडिया भारत की जनसंख्या को अपनी मूल पूँजी या शक्ति मानकर भारत और इंडिया के राज़, बाज़ार और जीवन की जरूरतों में सहज तालमेल बनाने की दृष्टी विकसित करेंगे तो आज की खुली अर्थव्यवस्था एवं वश्वीकरण के इस दौर में हम भारत और इंडिया दोनों की जीवन शैली का सहज एवं स्थायी प्रबंधन करने की दिशा में आगे बढ़ सकेंगे |
यदि हमने अकेले इंडिया के विकास या सपनो के प्रबंधन को ही जोर शोर से अपनाया और भारत के अपनो के सपनो के बारे में नहीं सोचा तो फिर इंडिया की चकाचौंध को भारत की मजबूत नींव नहीं मिल पायेगी | भारत और इंडिया राज़, काज, बाज़ार और जीवन जीने की दो दृष्टियाँ हैं | भारत की जीवन शैली स्थानीय साधनों को अपनाकर व्यापक "वसुधेव कुटुम्बकम" की जीवन दृष्टी है और इंडिया विश्व अर्थ व्यवस्था से भरपूर एकांकी जीवन शैली का प्रतिरूप है जिसका विस्तार न केवल भौतिक संसाधनों के हिसाब से अत्यंत खर्चीलअ है वरन प्राकृतिक संसाधनों को भी थोड़े समय में ख़त्म या प्रदूषित करने की आशंका को भी फलीभूत कर सकता है | भारत और इंडिया का सतत सहयोगी अपनत्व का भाव भारत और इंडिया ही नहीं सभी याने सारी दुनिया के मंगलमय जीवन के द्वार खोल सकता है | यही भारत की विरत वैचारिक विरासत है जिसे इंडिया ने कम करके नहीं आंकना चाहिए |

शब्दों का सफरनामा

जमीन से पैदा हो रहे गुंडे


संवाद पर भारी पड़ता विवाद


नी हुओ कांदा को ब्याव

नी हुओ कांदा को ब्याव

तरंगों ने बदला जीने का रंग-ढंग


सामयिक

सामयिक

तरंगों ने बदला जीने का रंग-ढंग

अनिल त्रिवेदी

बातचीत करना एक कला है। बात को सुनने में रस लेना व बातचीत में यथासंभव हस्तक्षेप या भागीदारी अपने आप में कला है। आजकल हर कोई बोलना तो चाहता है पर सुनना नहीं चाहता। मनुष्य की बोलने चालने की चाह अन्तहीन है। श्रुति और स्मृति से प्रारंभ हुआ मनुष्य समाज आज तकनीकी रूप से विकसित होकर मोबाइल फोन और सीडी तक आ पहुंचा है। मनुष्यों की बोलने की आदत को ही आधुनिक मनुष्य ने इन्फॉरमेशन टेक्नोलॉजी में बदल दिया है। आज का पूरा विश्व तरंगमय हो गया है। ध्वनि तरंगों का इतना व्यापक फैलाव कभी भी नहीं हो पाया था। आज दुनिया के किसी भी कोने में अपनी बात पहुंचाना हो तो चलता-फिरता मनुष्य इस काम को करने का साधन पा गया है। मनुष्यता के इतिहास में आज तक उसका कोई आविष्कार इतनी तेजी से आम आदमी की पहुंच में नहीं आया। आज के काल में जिस तेजी से मोबाइल का लोकव्यापीकरण हुआ है उसने मनुष्य की बातचीत करने की चाह को दुनिया के सबसे बड़े नए व्यापार में बदल दिया है। अभी तक मनुष्य की आवाज स्वयं मनुष्य के लिए धन दौलत कमाने के अवसर जुटाती थी। कोई अच्छा गाता था तो सुमधुर आवाज के बल पर पैसे कमा लेता था। कथा वार्ता कहकर, भाषण देकर या नाटक करके पैसे पा जाता था। आवाज के बल पर रेडियो-टीवी में उद्‌घोषक बन जाता था। मनुष्यता के इतिहास में मोबाइल के रूप में ऐसा साधन आया जिसके कारण हर किसी के द्वारा की गई सामान्य बात, बड़े-बड़े कॉर्पोरेट घरानों के लिए अनन्त धन दौलत के महासागर में बदल गई। अभी तक जमीन जायदाद की खरीदी-बिक्री में ही दुनियाभर के व्यवसाय या घोटाले होते थे। सारी राजनीति और सत्‌ता का प्रबन्धन जमीनों के खरीदने, आवंटन, अतिक्रमण, कब्जे करने या कबाड़ने तक ही सीमित था। पर आज के काल में ध्वनि तरंगों को खरीदना-बेचना देश और दुनिया का सबसे बड़ा व्यापार और घोटालों का महाअवसर बन गया। साकार जमीन के बजाय निराकार ध्वनि तरंगे सत्‌ता की राजनीति का सबसे बड़ा आकर्षण हो गई। ध्वनि तरंगों के आवंटन में पक्षपात या बन्दरबांट ने आज भारत का सबसे बड़ा घोटाला कर डाला। मन्त्री राजा से अभियुक्त राजा तक की संचार यात्रा भारत में तरंगों के व्यापार में आज तक के सबसे बड़े भ्रष्टाचार का पर्याय बन गई। हमारे देश में भंग की तरंग में डूबना कुछ लोगों को ही अच्छा लगता था। पर ध्वनितरंगों के नशे में पूरी तरह डूब जाना आज की सत्‌ता की राजनीति और कॉर्पोरेट्‌स के व्यापार की प्रमुख व्यस्तता है। देश और दुनिया ध्वनि तरंग में समा गई है। देश के बाल, वृद्ध व युवाओं पर ध्वनि ख्ब् घंटे के साथी हो गए! तोल-मोल या सोच-समझकर बोलने की हमारी सनातन परंपरा रही पर आज मनुष्य को ललचाया जा रहा है- कर लो दुनिया मुट्ठी में। मोबाइल को दिनभर हाथ में पकड़े हम दुनियाभर को पकड़ सकते हैं। तरंगों के इस खेल में नया खेल आदमी की जिन्दगी में यह आया कि अब उसे प्रतिदिन बोलने के पैसे भी चुकाना पड़ रहे हैं। अभी तक तो ये था कि दाल-रोटी के इर्द-गिर्द ही अधिकांश जीवन चलाते थे। जिन्दगी में टी टाइम या लन्च टाइम जैसे ही प्रसंग थे। पर अब मनुष्य की जिन्दगी में टॉक टाइम का नया प्रसंग आ गया। आज के मनुष्य को सूखीसट बातचीत में मजा उस तरह नहीं आता है। गरीबी रेखा से नीच का आदमी हो या अमीरी रेखा से ऊपर का आदमी, दोनों जिन्दगियों में मुफ्‌त की रूखी-सूखी बातचीत का दौर खत्म हो गया है! वाचाल मनुष्य के हाथ में जब बिना टॉक टाइम का मोबाइल होता है तो उसकी तत्परता देखते ही बनती है। आज के अधिकांश मनुष्य बिना चाय या भोजन के खुद भूखे रहना पसन्द कर लेते हैं पर अपने मोबाइल को भूखा रखना सहन नहीं करते। आज मनुष्य की जिन्दगी में ध्वनि तरंग ने समूचे लोकजीवन के साथ ही ध्वनितंरगों की सत्‌ता और व्यापार इतना ताकतवर है कि हमारी संसद में पक्ष-विपक्ष की चहल-पहल पूरी तरह बन्द है।

गांधीवादी चिन्तक

टी टाइम और लन्च टाइम का दौर गया, अब तो टॉक टाइम का दौर-दौरा है!

Monday, February 14, 2011

विचारों के देश मैं पैसों का अखंड महाभोज- लेखक-अनिल त्रिवेदी


विचारों के देश मैं पैसों का अखंड महाभोज- लेखक-अनिल त्रिवेदी

भारत शुरू से ही दर्शन और विचारो का देश रहा है,लेकिन पिछले कुछ समय से यहाँ जीवन के हर क्षेत्र में विचार से ज्यादा अर्थ की ताकत निरंतर और अधिक तेजी से बढ़ रही है. यह एक ऐसा देश बनता जा रहा है,जिसमे आपको ख़ुद से भिन्न विचार वाले व्यक्ति को ख़ुद के विचार से सहमत करने के लिए विचारों की नही लोभ-लालच के साधनों हथकंडो या रणनीति की जरुरत पड़ती है|भारत में विचार का स्थान सामान्यतः लोभ-लालच या रुपयों की दुनिया के हाथों मैं केंद्रित होता जा रहा है। छोटी-मोटी सभा सोसायटी से लेकर लोकसभा जैसे सर्वोच्च सदन तक चुनकर पहुँचने के लिए परिवर्तन के वाहक विचार प्रक्रिया के स्थान पर मुद्रा का विनिमय यही आज हममे सेअधिकांश को आसन मार्ग लगने लगता है। कीसी व्यक्ति के पास बहुत पैसा है तो अधिकांश समाज उसे धनबली मानता है और उसके सानिध्य में कुछ न कुछ प्रसाद पाने की आकांक्षा या भीड़ बनाये रखने का प्रचलन हर क्षेत्र में बड रहा है,वही शुद्ध विचारशील सरस्वती पुत्र के पास शुद्ध ज्ञानार्जन की आकांक्षा लेकर आज भी इक्का-दुक्का व्यक्ति ही पहुँच पाते हैं।
विचार की कोख से जन्मा पैसा ही आज सबसे बड़ा विचारहंता हो गया। जीवन के हर क्षत्र में पैसे के अत्यधिकप्रचलन से बाहर करने की राह पकड़ ली है। यही कारण है की समाज विचार पर केंद्रित होने की बजाये पैसे पर केंद्रित होताजा रहा है। अर्थ बिना सब व्यर्थ का आदर्श जीवन हर क्षेत्र में गठरी पैठ बनता जा रहा है और अधिकांश लोगों के मन एवं जीवन में विचार निष्ठां के बजाये शुद्ध अर्थ्निष्ठा का जोर बढ़ रहा है। किसी भी तरह का पैसा समाज को सम्मोहित कर रहा है पर किसी भी किस्म का विचार समाज व्यक्ति और विचारों को सजग और चैतन्य बनने में सफल नही हो पा रहा। यह वर्तमान की सबसे बडी चुनौती है की महज पैसे की दुनिया से विचारों की दुनिया का मुकाबला कैसे करें? आज भारत की राजनीती ही नही पुरे लोकजीवन में मुद्रा का अतिरिक्त अवैध विनिमय लोकव्यवहार और दस्तूर बनता जा रहा है। आप रेल में यात्रा कर रहे है और रिजेर्वेशन चाहिए तो पैसे देकर सीट हासिल कर सकते हैं। यह एक ऐसा मान्य साधन बन गया है कही भी इस्तेमाल कर परिचित तो छोडिये अपरिचित से भी मनचाहा व्यवहार करवा सकते हैं। बच्चे में योग्यता न हो , लेकिन लाखो की कैपिटेशन फीस अदा कर मनचाही शिक्षा के लिए प्रवेश दिला सकते हैं। यह बात आम धारणा बन गई है की की जो काम नियम कायदों से सम्भव नही वह पैसे से तत्काल सम्भव हो सकता है। इसी का नतीजा है की भारत के लोकमानस में यह भ्रम आम हो गया है की पैसे की ताकत नियम कायदे से अधिक है। हमारे राज्य संवेधानिक रूप से नियम-कायदे से चलने वाले राज्य हैं। राज्य अपनी कार्यप्रणाली में किसी के साथ भेदभावपूर्ण व्यवहार नही कर सकते और यदि करते हैं तो देश के नागरिक को यह संवेधानिक उपचार उपलब्ध है की वह राज्य द्वारा किए गए भेदभाव के विरूद्ध न्यायलय में जाकर अपना अधिकार हासिल करे । इस कानूनी स्थिति के मौजूद होते हुए भी समाज में यह ग़लत धारणा बनती जा रही है की क़ानून तो दिखावटी गहना है। बिना लेन-देन कुछ भी नही होता,होगा भी तो देर से। इसलिए तुंरत कार्य कराने का व्यवहारिक तरीका क़ानून नही पैसों का लेनदेन है।
संविधान के होते हुए भी राज्य और समाज पैसे के आधार पर विशिष्टता या तत्परता से कोई कम कराने की कार्यप्रणाली विकसित कर रहे है। जैसे देश के कई धार्मिक स्थलों में ज्यादा चढावा या नकद पैसा देकर दर्शन करने वाले विशिष्टता का तमगा लिए लाइन में खडे हुए बिना सीधे गर्भग्रह में जाकर दर्शन कर सकते हैं। इस व्यवस्था पर गुस्सा या भेदभाव का अहसास होने के बजाये हम इस व्यवहारिक व्यवस्था की संज्ञा देते हैं। आपसी बातचीत में यह आम बोलचाल का मुहावरा बन गया की नौकरी में निश्चित एवं निर्धारित वेतन को सूखी तनख्वाह माना जाता है। जिन पदों पर वेतन के आलावा कोई अतिरिक्त राशि पाने की गुंजाईश न हो,उन पदों पर नियुक्त अधिकांश लोग अपनी नियति को कोसते रहते हैं की यहाँ पर तो आगे बढ़ने का मौका ही नही है। सूखी तनख्वाह में कैसे गुजारा होगा? यह दुःख आज के समाज का सबसे बड़ा दुःख बनता जा रहा है। यही वर्तमान का खुला रहस्य की हममे से आधिकांश को कंही कोई गड़बड़ नजर नही आती,क्योंकि हम तमाम तरह की आर्थिक गडबडी को लोभ-लालचवश निजी और सार्वजनिक जीवन का लोकव्यवहार बनाते जा रहे हैं।