Friday, December 10, 2021
Tuesday, July 27, 2021
मानव बनाम महामारी
युद्धशास्त्र का यह सामान्य सिद्धांत हैं कि हमलावर को परास्त करने के लिये जिन पर हमला होता हैं उन सबने पूरी एकाग्रता से हमलावर को घेर कर परास्त करना चाहिये।हमारी इस विशाल धरती के सबसे बुद्धिशाली मानवों पर ही धरती के हर हिस्से पर महामारी का हमला हुआ है।युद्धशास्त्र के कायदे से तो इस धरती के बुद्धिनिष्ट मनुष्यों को वैश्विक एकजूटता के साथ इस महामारी से मुकाबला करना चाहिये।पर देश और दुनिया के मनुष्य एक दूसरे पर आरोप लगा रहे हैं की महामारी फैलाने के लिये ये जवाबदार तो वो कहे मैं नहीं वो जवाबदार।एक तरफ हम दावा कर रहे हैं हम सब महामारी से युद्ध लड़ रहे हैं।तो दूसरी तरफ मनुष्य सारी दुनिया में आपस में संवाद की जगह विवाद कर रहे हैं।एक दूसरे पर ऐसे दोषारोपण कर रहे जो सामान्य काल में भी हम एक दूसरे पर नहीं लगाते।महामारी तो सारी दुनिया में फैल गयी ,हम सब एकजुट हो महामारी का मुकाबला करने से चूक गये,यही आज की दुनिया और दुनिया के मानव मनों की बुनियादी कमी हैं कि हम समस्या का समाधान करने के बजाय मन की संकीर्णता में ही उलझते रहते हैं।ध्यान के भटकाव से ध्येय हांसिल नहीं होता।
संविधान की दृष्टि बनाम समाज और राजकाज में दृष्टिभेद
भारत का संविधान अपने नागरिकों के बीच कोई या किसी तरह का भेद नहीं करता।संविधान ने सभी नागरिकों को विधि के समक्ष समानता का मूलभूत अधिकार दिया हैं।पर दैनन्दिन व्यवहार में भारतीय समाज में नामरुप के इतने भेद हैं और संविधान के तहत चलने वाले राजकाज की कार्यप्रणाली भी भेदभाव से मुक्त नहीं हैं।इस तरह भारतीय समाज में समता के विचार दर्शन को मान्यता तो हैं पर दैनन्दिन व्यवहार में या आचरण में पूरी तरह समता मूलक विचार नहीं माना जाता।भारत में सामाजिक असमानता और भेदभाव को लेकर कई विशेष कानून बने पर सामाजिक असमानता और भेदभाव की जड़े उखड़ने के बजाय कायम हैं।
धरती की जीवन और भोजन श्रृंखला
जीवन और भोजन दोनों एक दूसरे से इस कदर एकाकार हैं कि दोनों की एक दूसरे के बिना कल्पना भी नहीं की जा सकती हैं।जीवन हैं तो भोजन अनिवार्य हैं।भोजन के बिना जीवन की निरंतरता का क्रम ही खण्डित हो जाता हैं।जीवन श्रृखंला पूरी तरह भोजन श्रृखंला पर हीं निर्भर हैं।कुदरत ने धरती के हर हिस्से में किसी न किसी रूप में जीवन और भोजन की श्रृखंलाओं को अभिव्यक्त किया हैं।कुदरत का करिश्मा यह हैं कि जीवन और भोजन का धरती पर अंतहीन भंड़ार है ,जो निरन्तर अपने क्रम में सनातन रूप से चलता आया हैं और शायद सनातन समय तक कायम रहेगा।शायद इसलिये की जीवन का यह सत्य हैं कि जो जन्मा हैं वह जायगा।तभी तो जीव जगत में आता जाता हैं पर जीवन की श्रृखंला निरन्तर बनी रहती हैं।यहीं बात भोजन के बारे में भी हैं।भोजन की श्रृखंला भी हमेशा कायम रहती है,बीज से फल और फल से पुन:बीज।बीज के अंकुरण से पौधे तक और पौधे से फूल,फल और बीज तक का जीवन चक्र।इस तरह जीवन श्रृखंला और भोजन श्रृखंला एक दूसरे से इस तरह धुलेमिले या एकाकार हैं की दोनों का पृथक अस्तित्व ढूंढ़ना एक तरह से असंभव हैं।
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गाली और गोली हमारी वैचारिक हार है
अनिल त्रिवेदी
हमारे पास आज है,कल भी आज ही होगा
सनातन समय से हम याने मनुष्यों को आध्यत्मिक वृत्ति के दार्शनिक चिंतक विचारक समझाते रहे हैं कि हमें वर्तमान में जीना चाहिए।वस्तुत:हम पूरा जीवन वर्तमान में ही जीते हैं।हमारे पूरे जीवन काल में वर्तमान ही होता हैं।याने हमारे पास आज हैं,कल भी आज ही होगा।कल आज और कल।हमारी समझ के लिये काल की सबसे आसान गणना।दो कल के बीच आज।पर आज सनातन रूप से आज ही होता है।कल आता जाता आभासित होता रहता हैं।पर आज न आता हैं न जाता हैं हमेशा बना रहता हैं।जैसे सूरज हैं सदैव हैं पर हमें यह आभास होता हैं कि वह उदित और अस्त हो रहा हैं।जैसे हम रोज जागते हैं और सोते हैं पर सोते और जागते समय हम हमेशा होते तो हैं।कहीं नहीं जाते।हम रोज कहते हैं कल आयेगा पर कल कभी आता नहीं हमेशा आज ही होता हैं।जब हम हमेशा आज में ही जीते हैं तो यह बात या दर्शन क्यों उपजा की वर्तमान में जीना चाहिए।आज हमेशा हैं।पर हम आज का जीवन कल की चिंता में जी ही नहीं पाते।जब तक हम जीते हैं आज साक्षात हमारे साथ होता हैं पर हम आज के साथ हर क्षण जीते रहने के बजाय कल की परिकल्पना या योजना से साक्षात्कार में ही प्राय: लगे होते हैं।हमारी सारी कार्यप्रणाली कामनायें,योजनायें व भविष्य को सुरक्षित करने का सोच व चिन्तन कल को सुरक्षित रखने के संदर्भ में ही होता हैं। यहीं हम सब की जीवन यात्रा का एक तरह से निश्चित क्रम बन गया हैं।ऐसा क्यों क्रम बना यहीं वह सवाल हैं जिसका उत्तर विचारक दार्शनिक आध्यात्मिक संत परम्परा के गुणीजन हम को आज में आनन्द अनुभव करने का सूत्र समझाते हैं।
Friday, March 5, 2021
बिना मिले झगड़ते रहने वाली दुनिया
झगड़ा मनुष्य का गुण है या अवगुण इस पर कोई और टीका टिप्पणी नहीं।पर आज सूचना क्रांति के आभासी युग में शान्त और सरल स्वभाव के दुनिया भर के लोग भी घर बैठे ही झगड़ों के चक्रव्यूह में उलझे ही नहीं, निरन्तर रहने भी लगे हैं।इसी से मैंने शुरूआत में ही स्पष्ट किया कि झगड़ा, गुण है या अवगुण ,इस पर कोई बात नहीं करेगें।झगड़ा इतना तगड़ा है कि हम चाहे न चाहे यदि हम आभासी दुनिया के आदि हो गये है तो आभासी झगड़ा हमारे जीवन का अविभाज्य अंग हो गया है।यदि हम आभासी दुनिया में रचे बसे न हो तो फिर हम अपने मन के राजा है।अपन भले और अपनी दुनिया भली।इससे उलट यदि हम आभासी दुनिया में लिप्त हैं तो हमारी दशा दुनिया भर की हर छोटी बड़ी क्रिया प्रतिक्रिया की कठपुतली की तरह है।जो दूसरों की उंगलियों पर हर समय नाचती रहती है।वास्तविक दुनिया और आभासी दुनिया में आकाश पाताल जैसा भेद है फिर भी आज की दुनिया की आबादी वास्तविक दुनिया से ज्यादा आभासी दुनिया की आदि होती जा रही है।आभासी दुनिया की चकाचौंध और तेज गति शायद आभासी दुनिया के प्रति मनुष्य के बावलेपन का मुख्यकारक हो। जीवन के प्रारम्भ से मनुष्य प्रत्यक्ष साक्षात्कार से ही वास्तविक दुनिया को जान समझ या देख पाता था।यह सब जानने समझने और देखने के लिये शरीर को हर जगह ले जाये बिना कुछ देख सुन या प्रत्यक्ष जान समझ नहीं सकते थे।आभासी दुनिया ने दुनिया का सबसे बड़ा उलट फेर कर दिया अब किसी बात के लिये कहीं जाने की जरूरत नहीं दिन भर कहीं भी कभी भी बैठे बैठे या लेटे लेटे ,दुनियाभर की छोटी बड़ी सारी गतिविधियां, जिनका आपसे सीधा या दूर का भी कोई ताल्लुक नहीं हैं फिर भी सुबह उठने से लेकर रात सोने तक आप की अंगुलियों की गतिशीलता से आभासी रूप से आपके जीवन में हर समय हाज़िर हैं।इसका नतीज़ा हम सबको महसूस तो हो रहा है पर उसे हम जानते बूझते भी इस बात को स्वीकार नहीं कर पा रहे हैं।नतीजा हमारे भौतिक जीवन का प्रवाह एक छोटे से गढ्ढे के पानी जैसा सिकुड़ गया है और मानस चौबिसों घण्टे बारहों माह आंधी तूफान की तरह हो गया और हमारी जीवन की लय ही न जाने कहां भटक गयी और हमारी सारी जीवनी शक्ति अंगुलियों में सिमट गयी। पहले ताकतवर लोग दुनिया के लोगों को अपनी अंगुलियों के बल पर नचाने का सपना देखते थे या नचाते थे अपने साम्राज्य की सत्ता ,सेना और सम्पत्ति के बल पर।आज हम सब सूचना तकनीक के काल में खुद ही खुद की अंगुलियों के बल पर खुद का पैसा स्वेच्छा से आदत की गुलामीवश लुटाकर नाचने लगे हैं।डरने लगे हैं ,डराने लगे हैं ,छाने लगे हैं, फूल कर कुप्पा होने लगे हैं और असमय मुरझाने लगे हैं।बैठे बैठे ही कहीं गये- मिले बगैर ही आभासी अनुयायी नहीं फालोअर बनाने लगे हैं और अपने आभासी आंकड़ों पर इतराने लगे हैं।भले ही इतनी लम्बी जिन्दगी में हमारे पास सांसों का हिसाब न हो पर सूचना तकनीक के पास हमारे पल-पल का पूरा हिसाब हैं जो हमारी अंगुलिया हर क्लिक पर दर्ज करती जा रही हैं।
सूचना तकनीक ने भले ही बहुत सारी बातों को सुगम और गतिशील बनाया हो पर हमारी निजता को छिन्न भिन्न ही नहीं सारी दुनिया की पहुंच में ला दिया है या विकास की सरकारी भाषा में कहें तो निजता का लोकव्यापीकरण कर दिया हैं। आज की दुनिया में उसी मनुष्य के पास अपनी निजता का सुख या सानिध्य हैं जो सूचना तकनीक को अपने इस्तेमाल का विषय ही नहीं मानता।अन्यथा सारी दुनिया के लोग सूचना तकनीक के साधनों के इतने अधिक आदि हो गये की सिम खत्म हुई नहीं की तत्काल रिचार्ज करवाना जैसे सांस लेने से भी अधिक जीवन की अनिवार्यता हो।उस पर भी आनन्द यह है किेे सूचना तकनीक के काल से पहले दूसरे के पत्र को खोल कर पढ़ लेना न केवल बदतमीजी समझा जाता था वरन एक दूसरे की निजता को निभाना निजी और सार्वजनिक जीवन की अलिखित सभ्यता की सर्वमान्य परम्परा थी।यहां सभ्यता की सर्वमान्य परम्परा शब्द का इस्तेमाल इसलिये किया है की हमारे मानवी जीवन में असभ्यता के भी बहुत गहरे संस्कार है जिनका विस्फोट सूचना क्रांति के दौर में दिन दूना रात चौगुना होता जा रहा हैं और हम सब कुछ जानते बूझते न केवल बेखबर हैं वरन अपने गांठ का पैसा खर्च कर स्वेच्छा से अपनी निजता का विसर्जन कर रहे हैं।
सूचना तकनीक ने सब कुछ खोल दिया याने आजाद कर दिया पर निजता की आजादी को बिना पूछे हमसे छीन लिया और सब निरन्तर स्वेच्छा से भुगतान कर निजता की आजादी को समाप्त होते देख शायद इसलिये खुश हैं कि भले ही हमारी निजता की आजादी लुप्त हो गयी हो पर दूसरो की निजता में सुबह से रात तक हस्तक्षेप का आनन्द तो बिन मांगे ही मिल गया।भले ही हम अपनी आजादी की रक्षा नहीं कर पाते पर दूसरों की निजता को आभासी रूप से छीनते रहने का अंतहीन औजार तो मिल गया।इसी में पूरी दुनिया मगन हो अंतहीन असभ्यता की नयी सभ्यता का निरन्तर फैलाव कर रही है।साथ ही सब कुछ जान कर भी अनजान बन कर सूचना क्रांति को ही जीवन की अनिवार्यता की नयी आभासी सभ्यता मानने में प्राणप्रण से जुट गयी हैं । साथ ही साथ बैठे बैठे या लेटे लेटे ही जीवन के सारे व्यवहार प्रत्यक्ष कहीं जाये बगैर आभासी रूप से करके ही मगन होती जा रही है और जीवन के विराट प्रत्यक्ष स्वरूप को भुलती जा रही हैं।प्रत्यक्ष के प्रमाण को स्वेच्छा से त्यागकर आभासी जीवन की मृगतृष्णा से आशा से ज्यादा अपेक्षा कर जीवन की प्रत्यक्ष प्राकृतिक आजादी और निजता को इतिहास में दफन कर रही हैं।जो सभ्यता अपनी आजादी और निजता की कीमत पर नयी विकसित दुनिया खड़ी करती जा रही हैं वह गतिशीलता की दौड़ में कूद तो गयी हैं पर मनुष्य जीवन के प्रत्यक्ष प्राकृतिक जीवन से अलग थलग हो कर एक भौंचक मानव समाज में बदल रही हैं। जो प्रत्यक्ष को छोड़ आभासी दुनिया का दीवाना है।प्रत्यक्ष दुनिया अपने मानवीय मस्तिष्क से हर चुनौती का हल खोजने का सामर्थ्य बताती रही है पर आभासी दुनिया का भौचक समाज आतंक भय उत्तेजना अंधानुकरण और विचारहीनता की भेड़चाल को ही एकमात्र रास्ता मानता है जिसमें जीवन भर बिना सोचे समझे टुकुर टुकुर देखते रहना ही जीवन का एकमात्र क्रम बन जाता हैं।हम प्रत्यक्ष दुनिया के जीवन्त मानव से आभासी दुनिया की भेड़ चाल के अंतहीन राहगीर में अपने आप को क्योंकर बदलते जा रहे हैं यही वर्तमान का खुला सवाल है।जिसे हम सब निजी और सार्वजनिक जीवन में जानते बूझते भी अनदेखा कर रहे हैं।हमारी सामूहिक चुप्पी हमें संवेदनशील मानव सभ्यता से भीड़ की असभ्यता का आदि बना चुकी हैं यही काल की सबसे बड़ी प्रत्यक्ष चुनौती है जिसका हमें अहसास भी नहीं हो पा रहा है तभी तो हम सब आभासी दुनिया में तेज रफ्तार से भागते रहने को ही जीवन मान रहे हैं।
आन्दोलन जीवन का प्रवाह है
जीवन गतिहीन निस्तेज जड़ता न होकर नित नये प्रवाह की तरह निरन्तर गतिशील तेजस्विता का पर्याय है।किसी सरकार का आना-जाना बनना बिगड़ना महज एक घटना है।प्राय:सरकारें लकीर की फकीर की तरह होती हैं पर जनआन्दोलन हर बार सृजनात्मक परिवर्तन की नयी नयी लकीरें खींचना चाहता हैं।हर आन्दोलन का मूल विचार एकदम सफल ही हो यह आवश्यक नहीं पर हर आन्दोलन में एक सपने को साकार करने की संभावना जरूर छिपी होती है।जीवन एक वैचारिक आन्दोलन है तभी तो वह सतत नित नये प्रयोगों के विचारों से प्रवाहमान होता रहता है।सरकारें कई रूप रंगों की होती है पर आन्दोलन का एक ही रूप और रंग होता हैं जीवन के सवालों को बिना डरे पूरी मानवीय ताकत से उठाना और समाधान तलाशते रहना।दुनिया में जब तक जीवन है तब तक आन्दोलन होते रहेंगे।जिस दिन जीवन ही जड़ हो जाये या अचेतन में चला जायगा तो आन्दोलन मंद हो जायेगा पर खत्म नहीं होगा।आन्दोलन एक तरह से गतिशील जीवन की जीवनी शक्ति है या जीवन की सनातन विरासत।जीवन ही आन्दोलन है या आन्दोलन ही जीवन है।अवाम, जनता या लोग कभी आन्दोलन से नहीं घबराते,आन्दोलन तो अवाम की जीवनी शक्ति की तरह हैं।अवाम की जीवनी शक्ति से हर रूप रंग की सरकार की संवेदनशीलता बढ़नी चाहिये पर कोई भी सरकार न तो आन्दोलन का स्वागत करती है और न ही खुद होकर आगे बढ़कर संवाद प्रारम्भ करती है।उत्तरदायी सरकारें भी आन्दोलन के सवालों को लेकर पता नहीं क्यों लगभग हमेशा अनुत्तरदायी या अनमनी ही बनी रहती हैं?अपने ही लोगों से खुलेमन से संवाद में हिचकीचाहट क्यों?आन्दोलनों को लेकर सरकारों का अनमनापन सरकारों के कामकाज करने की मूल दृष्टिहीनता को ही उजागर करता हैं।सरकारें आन्दोलनों को कुचलने के बजाय जनमानस के असंतोष या विचारों को देखने समझने का अवसर आन्दोलन में देखें समझे तो देश और दुनिया की सरकारें ज्यादा असरकारी रूप में अपना कामकाज कर पायेगी।जिस दृष्टि से समस्याओं को सरकारें देख समझ नहीं पाती वह दृष्टि और समझ आन्दोलनों से खुले संवाद से अनायास ही मिल सकती है।आन्दोलन जनमानस में उठ रहे सवालों को समझने का खुला अवसर है यह देश और दुनिया की सरकारों को समझ नहीं आता और सरकारें आन्दोलन को खत्म करने या कुचलने के तौर तरीकों में उलझकर समस्या के समाधान के बजाय अपने देश के लोगों से ही घमासान में अपनी ताकत झोंक देती हैं।देश और दुनिया में लोगों ने सरकारों को जन्म ही जनसमस्याओं के सहज और निरन्तर समाधान के लिये ही दिया है न कि जनमानस की अनसुनीकर निरन्तर अपने ही नागरिकों से अकारण घमासान करते रहने के लिये।
शायद दुनिया में लोकमानस की सतत रखवाली करने वाली ऐसी सरकार कभी भी नहीं आयेगी जो आन्दोलन की राह को लोकमानस में जन्मने ही न दे।इसका मूल कारण सरकार का महज एक घटना होना हैं।घटना घटती रहती है पर हर समय सरकार जीवन्त गतिशील और प्रवाहमय नहीं हो सकती है।सरकारों की यही वैचारिक जड़ता आन्दोलनों की असली तासिर को समझे बिना ही अपनी सरकारी ठसक में मगन रहती हैं।खेती किसानी जीवन की निरन्तरता को बनाये रखनेवाला बुनियादी प्राकृतिक काम है।खेती किसानी करने वाली जमाते प्राय:खेती किसानी जैसे सतत प्राकृतिक उत्पादक कामकाज में ही जुटे रहते हैं।विधि विधान बनाने का विधायी कामकाज संसद और विधायिका का सामान्य कामकाज हैं।पर इन दिनों भारत के लोकतंत्र में सवाल उठाने वाली जमाते प्राय: मौन हो चली है और मौन रहने वाली जमाते बुनियादी सवाल बुलन्दी से उठा रही हैं।जब संसद मौन हो जाती है तो सड़कें बोलने लगती हैं।सड़कों पर आवाज बुलन्द होने का अर्थ ही है कि संसद बहस चर्चा विचार विमर्श के बजाय चुप हो गयी हैं।संसद में बहस न हो तो विधायी कार्य यंत्रवत जड़ता में बदल जाता हैं।जीवन्त और समग्रता से निर्भिक बहस ही संसदीय प्रणाली की जान है।संसद में सन्नाटे से ही सड़कें मुखरता से आवाज उठाती हैं।सड़को पर उठे लोगों के सवाल लोकतंत्र को निखारते हैं।सड़क महज आवागमन का जड़ साधन नहीं लोगों की आवाज उठाने वाला प्रभावी औजार हैं।आवाज़ उठाते लोग व्यवस्था को निरन्तर सतर्क और चाकचौबन्द बनाये रखने में मदद करते हैं। जब अवाम सड़क पर आती हैं तो देश दुनिया की सारी सरकारें कहने लगती हैं लोगों को आवागमन में परेशानी हो रही हैं।सरकारें लोकजीवन की परेशानी को निरन्तर समझने और सुलझाने में प्राणप्रण से रूचि नहीं लेती और जब लोगों के पास कहीं सुनवाई का कोई रास्ता नहीं बचता तो वे मजबूर होकर सड़क पर आते हैं और सरकारों को अपने मूलदायित्व से भटकने से बचाते हैं।तभी तो भारत के संविधान में शांतिपूर्ण तरिके से लोगों को एकत्रित हो अपनी बात अभिव्यक्त करने का मूल अधिकार रखा गया हैं।
आजादी के आन्दोलन में चंपारण के किसानों ने बुनियादी सवाल उठाया था।आज आजाद और लोकतांत्रिक भारत के किसान भी बुनियादी सवाल उठा रहे हैं।भारत की खेती किसानी का बुनियादी ढांचा कैसा होगा?किसान स्वयं अपना मालिक होगा या बाजार का एक अदना मोहरा?बाजार का राज चलेगा या खेती किसानी में स्वराज रहेगा।मंडी या खेती किसानी या उपज के न्यूनतम मूल्य ,क्रय विक्रय और भंडारण से संबन्धित तीनों कानून को जिस तरह से वर्तमान संसद और सरकार ने पारित किया उस तरीके ने सोती हुई जनता को जगा दिया और आम तौर पर चुप रहने वाली खेतिहर जमाते जिस तेजस्विता और तेवर से सवाल उठा रही है उससे समूचे देश में यह खुला संदेश गया है कि हमारे लोकतंत्र का तंत्र भले ही जड़ हो गया हो पर लोक तो चैतन्य हैं।
सरकार जब यह मानने लगती है कि हम तो सरकार हैं हम जो करेंगे उसे सब मानेगें ही तो सरकार असरकारी नहीं रह पाती।वही सरकार असरकारी हो सकती है जो सब को साथी सहयोगी माने, किसी से न तो कुछ छिपाये और न ही किसी को डराये ।अच्छे कानून वे होते हैं जो आम जनता को अपने आप समझ आ जाय अभियान चला कर या रैलियां कर समझाना न पड़े।जैसे सूरज उगता हैं तो उजाला अपने आप आ जाता हैं वैसे ही कानून को बनाने का तरीका भी हर देशवासी के मन को शंका से परे हर बार खुला और पारदर्शी रहना ही चाहिए।चुनी हुई सरकारें भी गलती से परे नहीं है।संसद भी गलती से परे नहीं है।लोकतंत्र का मतलब ही है कि हम सब अपनी जानी अनजानी गलतियों से निरन्तर अवगत होते रहे और अपने निर्णयों व व्यवहार में हुई गलतियों को स्वीकार कर सुधारते रहे।लोकतंत्र सतत चलने वाली वह लोकव्यवस्था हैं जिसमें हम मिलजुल कर खुले मन से एक दूसरे से सीखते- सिखाते हैं।लोकतंत्र में सीखने की तो अंतहीन गुंजाइश हैं पर अपनी गलती पर अवाम को सबक सिखाने का कोई अवसर ही नहीं हैं।
भारत में खेती किसानी एक जीवनपद्धति है।लाभ हानि का व्यापार नहीं।भारतीय खेती किसानी यंत्रवत उत्पादन और वितरण का व्यवहार न होकर जीवन की सनातन सभ्यता हैं।सभ्यता की जीवनी शक्ति ही भारतीय खेती किसानी की मूल ताकत हैं।भारत का किसान जानता समझता है कि खेती किसानी का कुदरती तरीका क्या है।किसानी करने वाले नौकर चाकर और वेतनभोगी यंत्रवत व्यवस्थागत कामकाज करने वाली जमाते न होकर इस देश के चप्पे चप्पे में अपनी समझ,साधन,सहयोग के साथ अकेले अपनी रोटी ही नहीं अपने गांव देश और दुनिया की रोटी की खुराक पैदा करने में सदियों से बिना रूके और झुके लगी हुई विकेन्द्रित जीवन्त बिरादरी है जो केवल खुद की ही नहीं प्राणीमात्र की जीवन की जरूरत यानी खुराक को पैदा करने में अपना सब कुछ लुटाती आयी है और लुटाती रहेगी।यहीं आज के भारत में चल रहे किसान आन्दोलन की जीवनी शक्ति और हम सब के जीवन का खुला सवाल है जिसका हल हमें हिल मिलकर खोजना ही होगा।हिलमिलकर जीना और सबको समझना समझाना यही आन्दोलनकारी जीवन का सरल सहज अर्थ है।
अनिल त्रिवेदी