Tuesday, July 27, 2021

पैसे की सभ्यता और मानव जीवन

 


गांधी महज़ सिद्धांत नहीं सरल व्यवहार हैं


 


ज्ञान कर्म के मेलजोल से संतुलन आवेगा

 


मानव बनाम महामारी

  युद्धशास्त्र का यह सामान्य सिद्धांत हैं कि हमलावर को परास्त करने के लिये जिन पर हमला होता हैं उन सबने पूरी एकाग्रता से हमलावर को घेर कर परास्त करना चाहिये।हमारी इस विशाल धरती के सबसे बुद्धिशाली मानवों पर ही धरती के हर हिस्से पर महामारी का हमला हुआ है।युद्धशास्त्र के कायदे से तो इस धरती के बुद्धिनिष्ट मनुष्यों को वैश्विक एकजूटता के साथ इस महामारी से मुकाबला करना चाहिये।पर देश और दुनिया के मनुष्य एक दूसरे पर आरोप लगा रहे हैं की महामारी फैलाने के लिये ये जवाबदार तो वो कहे मैं नहीं वो जवाबदा‌र।एक तरफ हम दावा कर रहे हैं हम सब महामारी से युद्ध लड़ रहे हैं।तो दूसरी तरफ मनुष्य सारी दुनिया में आपस में संवाद की जगह विवाद कर रहे हैं।एक दूसरे पर ऐसे दोषारोपण कर रहे जो सामान्य काल में भी हम एक दूसरे पर नहीं लगाते।महामारी तो सारी दुनिया में फैल गयी ,हम सब एकजुट हो महामारी का मुकाबला करने से चूक गये,यही आज की दुनिया और दुनिया के मानव मनों की बुनियादी कमी हैं कि हम समस्या का समाधान करने के बजाय मन की संकीर्णता में ही उलझते रहते हैं।ध्यान के भटकाव से ध्येय हांसिल नहीं होता।

महामारी काल में समुची मनुष्यता का एक समान लक्ष्य महामारी के निरन्तर विस्तार को हिलमिल कर रोकना होना चाहिए।पूरी दुनिया में महामारी के विस्तार का मुख्य कारक हम सबकी इस महामारी के स्वरूप को लेकर असमझ और सारी दुनिया के लोगों में आपसी समझ से ज्यादा नासमझी का होना बनता जा रहा हैं।हम सब मनुष्यों की आपसी समझदारी ही महामारी के महाविस्तार को रोकने में हम सबकी मददगार हो सकती हैं।
मनुष्य की सबसे बड़ी विशेषता यह हैं कि वह निरन्तर गतिशील रहा हैं और हर काल की चुनौतियों से अपने सारे विरोधाभासों के साथ विपरित से विपरित स्थिति में भी मनुष्यों ने अपनी अंतहीन कोशिशों को न तो कभी विराम दिया हैं न ही भविष्य में भी किसी भी परिस्थिति में मनुष्य की कोशिशे कभी समाप्त होने वाली हैं।कोशिश करने वालों की हार का सवाल ही पैदा नहीं होता हैं।हो सकता हैं हम तत्काल सफल न हो पर अपनी असफलताओं से हमें नया रास्ता सूझे।जीवन की यही जीवनी शक्ति होती हैं की वो हर परिस्थिति से जूझता रहता हैं इसी से जीवन सीधा सपाट एक मार्गी नहीं होता हैं।
इस समय हर रंग और ढ़ंग की सरकारी और असरकारी संस्थायें ,समाज और व्यवस्थाऐं अपनी अपनी समझ संसाधनों और संकल्प अनुसार महामारी के विस्तार को रोकने का प्रयास निरन्तर कर रही हैं।फिर भी सारी दुनिया में हिलमिल कर इस वैश्विक चुनौती का सामना करने की व्यापक समझदारी का भाव लगभग छःमाह बीतने पर भी पूरी दुनिया के पैमाने पर नहीं उभर पाया हैं।इस महामारी ने न केवल चिकित्साशात्स्रिय चुनौती खड़ी की हैं वरन मानव जीवन के हर आयाम में यथास्थिति में बदलाव हेतु चुनौतियां मानव जीवन के सामने खड़ी की हैं जिसका समाधान समूची दुनिया को निकालना और निरापद जीवन की राह बनाना आज की सबसे बड़ी चुनौती हैं।
महामारी से स्वास्थ्य और चिकित्सा को लेकर कई नयी चुनौतियां सारी दुनिया में उभरी हैं।जैसे मरीज , स्वास्थ्यकर्मी और चिकित्सक की जीवन सुरक्षा के व्यापक और निरापद उपायों की खोज हेतु वैश्विक स्तर पर संवाद सहयोग
का विस्तार।हवाई ,जल और थलमार्गीय यातायात में महामारी से बचने हेतु सुरक्षा उपायों में एकरूपता का निर्धारण सारी दुनिया में जरुरी हैं।आबादी के धनत्व के आधार पर स्थानिय स्तर पर निजी और सार्वजनिक यातायात संचालन के दौरान सुरक्षा उपायों खासकर महामारी काल के
दौरान और बाद में परिपालन करने हेतु मापदण्डों का निर्धारण।
महामारी के दौर में यदि सारी दुनिया में मानव जीवन को लेकर देश की सीमाओं से परे सोच समझ का विस्तार होना आज की पहली प्राथमिकता हैं ।संकट काल में एक दूसरे की सुरक्षा और सार संभाल की एक साझा वैश्विक समझ का स्थायी भाव विकसित होना समूची मनुष्यता के निरापद जीवन की ओर एक मजबूत कदम होगा।महामारी के काल में मनुष्य के अन्तरमन में यदि घर से दूर हैं तो किसी भी तरह और किसी भी किमत पर घर पहुंचने का भाव बहुत गंभीर रूप से उभरा।जो हम सबके जीवन की नयी चुनौती हैं जिसे स्वीकारना और दुनिया के हर हिस्से को घर जैसा आपातकाल में मानना यह भाव ही हम सबको अपने अंदर प्रतिष्ठित करना ही आज का सबसे बड़ा सबक हैं।विदेश और देश का भाव तभी कम हो सकता है जब हम समूची दुनिया को अपना घर और घर को सारी दुनिया का हिस्सा समझे।
आज की दुनिया में जीवन को इतना निरापद और सुरक्षित बनाने के मार्ग पर सारी दुनिया को चलना होगा कि दुनिया के सारे मनुष्यों के मन से देश विदेश और घर से दूर का भाव ही बिदा हो जावे।हमारे देश के महानगरों और बड़े शहरों में जो शहरी जीवन को और मजबूत बनाने के लिये गये थे वे इतने भयाक्रांत हो गये जीवन सुरक्षा के लिये दो ढाई हजार किलोमीटर पैदल चलने को भी बहुत बड़ी संख्या में निकल पड़े।महानगर या बड़े शहर के पास भी कोई उपाय और दृष्टि हीं दिखाईनहीं दी और लोगों के पास भी कोई विकल्प या निरापद उपाय नहीं।सरकारें भी पूर्वानुमान करने में सफल नहीं हुई।
जब देश में घर की याद इस तीव्रता से मन में जगी तो विदेश में रोजगार या अध्ययन के लिये मनुष्यों की मनःस्थिति को सारी दुनिया को समझना होगा।देश विदेश का भेद खत्म कर निरापद दुनिया और मन बनाना हम सबकी काल की चुनौती हैं।
महामारी के दौर में मानव का व्यवहार,उससे उभरे सवाल,देश दुनिया की सरकारों की मानवीय जीवन की गरिमा की समझऔरकार्यप्रणाली। देश दुनिया के लोगों के मन में अपने निजी और सार्वजनिक जीवन में प्राथमिकता के साथ बदलाव के संकल्प के साथ ही हम अपने अभी तक के जीवन क्रम की सामान्य लापरवाही को बिदा नहीं करेंगे। तब तक हम सारी दुनिया में निरापद जीवन की स्थापना करने में सफल नहीं होंगें।मनुष्य समाज चुनौतियों से निरन्तर सीखता हैं और अपने जीवन क्रम में बदलाव लाता रहता हैं।महामारी ने हम सभी मनुष्यों के निजी और सार्वजनिक कार्य कलापों में बदलाव का स्पष्ट संदेश दिया हैं।इस संदेश पर अमल ही आने वाले काल में हम सबके जीवन की दशा और दिशा तय करेगी।महामारी को जो करना था उसने अपने स्वरूप का विस्तार कर वह करना शुरू कर दिया अब हम सब मनुष्यों की बारी हैं हम हिलमिल कर अपने दिल दिमाग का विस्तार करेगें?या हमेशा की तरह असमंजस में ही बने रहेंगे।
अनिल त्रिवेदी

संविधान की दृष्टि बनाम समाज और राजकाज में दृष्टिभेद

 भारत का संविधान अपने नागरिकों के बीच कोई या किसी तरह का भेद नहीं करता।संविधान ने सभी नागरिकों को विधि के समक्ष समानता का मूलभूत अधिकार दिया हैं।पर दैनन्दिन व्यवहार में भारतीय समाज में नामरुप के इतने भेद हैं और संविधान के तहत चलने वाले राजकाज की कार्यप्रणाली भी भेदभाव से मुक्त नहीं हैं।इस तरह भारतीय समाज में समता के विचार दर्शन को मान्यता तो हैं पर दैनन्दिन व्यवहार में या आचरण में पूरी तरह समता मूलक विचार नहीं माना जाता।भारत में सामाजिक असमानता और भेदभाव को लेकर कई विशेष कानून बने पर सामाजिक असमानता और भेदभाव की जड़े उखड़ने के बजाय कायम हैं।

हमारा सामाजिक राजकीय मानस व्यापक सोच,समझ वाले न होकर प्राय:भेदमूलक व्यवहार वाले ही होते हैं।मनुष्य को सहज मनुष्य स्वीकारने का भाव यदा-कदा ही मन में आता हैं।हमारी समूची सोच और समझ प्राय: विशषेण मूलक ही होती हैं,खुद के बारे में भी और दूसरों के बारे में भी।हमारी समझ और सोच भी प्राय: तुलनात्मक ही होती हैं।इसी से हम जीवन और जगत को सापेक्ष भाव से ही देखने के आदि होते हैं जीव और जगत को सहज निरपेक्ष भाव से देखने का प्राय:हममें से अधिकांश:का अभ्यास ही नहीं होता।शायद यही कारण हैं की हमें अपनी भेद मूलक सोच और समझ में कुछ न्यूनता हैं ऐसा आभास भी नहीं होता।इसी से हम तरह तरह के भेदो और भावो को आचार विचार में मूलप्रवृति की तरह अपनाने के आदि हो जाते हैं।
अपने से बड़ों के प्रति आदर और छोटों के प्रति आशिर्वाद का सहज भाव भेद मूलक भाव न होकर सहज मानविय व्यवहार की विवेकपूर्ण जीवन-दृष्टि हैं।मनुष्यों की समतामूलक जीवन दृष्टि,सोच और व्यवहार ही सामाजिक राजकीय व्यवहार की दशा और दिशा का निर्धारक होता हैं।हमारे संविधान में समता पूर्ण व्यवहार और गरिमा पूर्ण जीवन जीने का मूल अधिकार जो संविधानिक रूप से अस्तित्व में होने पर भी समूचे लोक समाज और लोकतांत्रिक राजकाज में आधे-अधूरे और टूटे फ़ूटे रूप में यदा कदा दर्शन दे देता हैं। भारत के संविधान में समता,स्वतंत्रता और गरिमा पूर्ण जी्वन की सुनिश्चितता को लेकर जो मूल अधिकार हैं उनकी प्राण प्रतिष्ठा लोकसमाज और राजकाज में लोकतांत्रिक गणराज्य होते हुए भी सतही स्वरूप तथा खंण्ड़ित रूप में ही हैं।
कभी कभी तो अन्तर्मन में यह भी लगता हैं कि हमारा समाज और राजकाज किसी तरह जीते रहने और किसी तरह कुछ भी करते रहने को ही अपना कार्य मानने लगा हैं।क्या हम सब यंत्रवत भावना शून्य अराजक समूहों की तरह जीवन जीने के आदि नहीं होते जा रहे हैं?यह सवाल किसी और से नहीं अपने आप से ही हम सबको पूछना होगा और बिना परस्पर आरोप प्रत्यारोप के हिलमिल कर संविधान के गरिमामय जीवन मूल्यों की प्राण प्रतिष्ठा हमारे लोक समाज और राजकाज में करनी होगी।
आज के भारत में आबादी जिस तेजी से विराट स्वरूप लेती जा रही हैं उसके कारण जीवन का संधर्ष दिन प्रतिदिन बढ़ता ही जा रहा हैं।हमारे रहन सहन सोच और परस्पर व्यवहार में समता और सदभावना ही हमारे जीवन क्रम को व्यक्ति ,समाज और राजकाज के स्तर पर जीवन्त जीवन मूल्यों के रूप में साकार करने में मददगार बनेगा।बढ़ती हुई आबादी का एक रूप जीवन की सकारात्मक ऊर्जा के विस्तार के रूप में मानना और लोक जीवन के हर आयाम को मानवीय संवेदना से ओतप्रोत करने की चुनौती के रूप में लेने की वृत्ति हम सबकी होनी चाहिए।
चैतन्य समाज और परस्पर सदभावी लोकजीवन ही हर एक के लिए गरिमामय जीवन के समान लक्ष्य को साकार कर सकता हैं।
आज समूची दुनिया में चाहे वह विकसित देश हो ,विकासशील देश हो या अविकसित पिछड़ा देश हो सभी में व्यक्तिगत और सामुहिक जीवन की जटिलतायें प्रतिदिन बढ़ती ही जा रहीं हैं।आर्थिक असमानता और काम के अवसरों में कमी ने जीवन की जटिलताओं को बहुत ज्यादा बढ़ा दिया हैं।हम समूचे देश के लोगों की सामाजिक आर्थिक ताकत बढ़ाने की संवैधानिक राह के बजाय सीमित तबके केआर्थिक साम्राज्य का विस्तार कर संविधान के मूल तत्वों को ही अनदेखा कर रहे हैं।संकुचित सोच और एकांगी दृष्टि से इतने विशाल देश को समान रूप से स्वावलम्बी और चेतनाशील आत्मनिरभर देश के रूप में उभारा नहीं जा सकता।हमारी संवैधानिक दृष्टि हीं हमारी सामाजिक और राजकाज की दृष्टि हो सकती हैं।भारतीय समाज और राजकाज को चलाने वाली सामाजिक राजनैतिक ताकतों को वंचित लोक समूहों को सामाजिक राजनैतिक अधिकारों से सम्पन्न कर मानवी गरिमा युक्त जीवन जीने के अवसरों को देश के हर गांव कस्बे शहर में खड़ा करने के संवैधानिक उत्तरदायित्व को प्राथमिकता से पूरा करना ही होगा।
समता से सम्पन्नता और भेदभाव के भय से मुक्त समाज की संवेदनशीलता परस्पर सदभाव से लोकजीवन को सकारात्मक ऊर्जा से ओतप्रोत कर देती है।यहीं मानव सभ्यता की विरासत के संस्कार हैं।मनुष्य का इतिहास लाचारी भरा न हो चुनौतियों से जूझते रहने का हैं।भारतीय समाज भी सतत विपरित स्थिति से धबराये बिना रास्ता खोजते रहने वाला समाज हैं।भारतीय समाज का सबसे बड़ा गुण यह है कि उसमें भौतिक संसाधनों से ज्यादा आपसी सदभाव और सहयोग के संस्कार अन्तर्मन में रचे-बसे हैं।आर्थिक अभाव भारतीय स्वभाव को और ज्यादा व्यापक जीवन दृष्टि का मनुष्य बना देता हैं।आर्थिक अभाव जीवन को भावहीन बनाने के बजाय संवेदनशील और भावना प्रधान मनुष्य के रुप में जीवन मूल्यों का रक्षण करने की सहज प्रेरणा देता है।
हमारे राजकाज ने कभी भी यह संकल्प लिया ही नहीं की गरिमापूर्ण रूप से जीवन यापन हेतु आवश्यक संसाधन देश के हर नागरिकों को अनिवार्य रूप से उपलब्ध होंगे।अब तो स्थिति यह हो गयी हैं कि प्रतिदिन बढ़ती जनसंख्या से राज और समाज दोनों ही तनाव पूर्ण मानसिकता के साथ काम करते हैं।राज और समाज अपने हीं नागरिकों की संख्या से तनावग्रस्त मानस का हो जावे वह देश के हर नागरिक को गरिमामय जीवन देने का चिन्तन कैसे अपने राजकाज और समाज की पहली प्राथमिकता बना सकता हैं।
आज राज और समाज को जीवन में असमानता की खाई को पाटने के लिये पहले व्यापक कदम के रुप में कम से कम दोनों समय रोटी खाने और परिवार के हर सदस्य को दोनों समय रोटी खिलाने,बच्चों को शिक्षा दिलाने,बिमारी का इलाज कराने लायक मासिक आमदनी वाला बारह मासी रोजगार हर नागरिक के लिये सुनिश्चित करना हमारा गरिमामय रूप से जीवन जीने के मूल अधिकार की संवैधानिक बाध्यता के रूप में राज्य और समाज ने हिलमिल कर लागू करना हम सब का सामुहिक उत्तरदायित्व मानना चाहिये।तभी हम संविधान की दृष्टि और समाज तथा राजकाज के दृष्टिभेद को पाटने की दिशा में पहला निर्णायक तथा व्यापक बुनियादी कदम उठा पावेगें।
अनिल त्रिवेदी

धरती की जीवन और भोजन श्रृंखला

 जीवन और भोजन दोनों एक दूसरे से इस कदर एकाकार हैं कि दोनों की एक दूसरे के बिना कल्पना भी नहीं की जा सकती हैं।जीवन हैं तो भोजन अनिवार्य हैं।भोजन के बिना जीवन की निरंतरता का क्रम ही खण्डित हो जाता हैं।जीवन श्रृखंला पूरी तरह भोजन श्रृखंला पर हीं निर्भर हैं।कुदरत ने धरती के हर हिस्से में किसी न किसी रूप में जीवन और भोजन की श्रृखंलाओं को अभिव्यक्त किया हैं।कुदरत का करिश्मा यह हैं कि जीवन और भोजन का धरती पर अंतहीन भंड़ार है ,जो निरन्तर अपने क्रम में सनातन रूप से चलता आया हैं और शायद सनातन समय तक कायम रहेगा।शायद इसलिये की जीवन का यह सत्य हैं कि जो जन्मा हैं वह जायगा।तभी तो जीव जगत में आता जाता हैं पर जीवन की श्रृखंला निरन्तर बनी रहती हैं।यहीं बात भोजन के बारे में भी हैं।भोजन की श्रृखंला भी हमेशा कायम रहती है,बीज से फल और फल से पुन:बीज।बीज के अंकुरण से पौधे तक और पौधे से फूल,फल और बीज तक का जीवन चक्र।इस तरह जीवन श्रृखंला और भोजन श्रृखंला एक दूसरे से इस तरह धुलेमिले या एकाकार हैं की दोनों का पृथक अस्तित्व ढूंढ़ना एक तरह से असंभव हैं।


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जीवन की श्रृखंला एक तरह से भोजन श्रृखंला ही है।धरती पर जीवऔर वनस्पति के रूप में जो जीवन अभिव्यक्त हुआ है वह वस्तुत:मूलत:ऊर्जा की जैविक अभिव्यक्ति है।इसे हम यों भी समझ सकते हैं की जीव को जीवित बने रहने के लिये जो जैविक ऊर्जा आवश्यक है उसकी पूर्ति या तो जीव दूसरे जीव या वनस्पति को खाकर ही प्राप्त करता हैं।इस तरह जीवन और भोजन की श्रृखंला अपने मूल स्वरूप में एक ही है।जीव और वनस्पति की अभिव्यक्ति में नाम-रूप के ,स्वरुप और गुण धर्म के असंख्य भेद होने के बाद भी दोनों का मूल स्वरूप ऊर्जा का जैविक प्रकार ही हैं।यह भी माना जाता हैं की जीवन श्रृखंला वस्तुत:एक अंतहीन भोजन श्रृंखला ही हैं।एक जीव जीवित रहने के लिये दूसरे जीव को भोजन के रूप में खा जाता हैं।जैसे चूहे को बिल्ली और सांप खा जाते हैं,बिल्ली को कुत्ता और कुत्ते को तेंदुआ या शेर भी शिकार कर खा जाते हैं।कई तरह के कीड़े मकोड़ों को पक्षी निरन्तर खाते रहते हैं।बिल्ली कुत्ता जैसे जीव ,पक्षियों का शिकार कर लेते हैं।छिपकली जैसे प्राणी घर में निरन्तर कीट पतंगों का भक्षण करते ही रहते हैं।केवल जीवित प्राणी ही जीवित प्राणी को खाता हैं ऐसा ही नहीं हैं,कई जीव तो ऐसे हैं जों मृत प्राणियों की तलाश अपने भोजन के लिये करते ही रहते हैं।जैसे गिद्ध,कौव्वे।छोटी छोटी चिटियां तो बड़े छोटे मृत प्राणियों को धीरे धीरे पूरा कण कण कर चट कर जाती हैं।कौन कब जीव हैं और कब और कैसे, किसी का भोजन बन जाता हैं यह किसी को पता नहीं।यहीं इस श्रृखंला का अनोखा रहस्य हैं।जीव को अपने स्वरूप का भान नहीं होता कि वह जीव हैं या भोजन,अभी जीव के रुप में हलचल कर रहा था और अभी किसी और जीव के उदर में ,भक्षण करनेवाले जीव को भोजन के रुप में ऊर्जा प्रदान कर रहा होता हैं।इन श्रृखंलाओं की बात यहां पर हीं नहीं रूकती।किसी जीव के मरते ही उसका जीवन तो समाप्त हो जाता हैं पर मृत शरीर में कुछ ही धंटों में नये असंख्य सूक्ष्म जीवों का जन्म हों जाता हैं और मृत शरीर असंख्य सूक्ष्म जीवों का भोजन भंड़ारा बन जाता हैं।
जीवन श्रृखंला और भोजन श्रृखंला में एक दूसरे की भूमिका और एक दूसरे के स्वरूप में एकाएक परिर्वतन हो जाता हैं।इसके विपरित जीवन और भोजन एक दूसरे के जीवन चक्र और भोजन चक्र को परस्पर निरन्तर अस्तित्व में बनाये रखने में परस्पर एक दूसरे के पूरक की तरह भी सतत कार्यरत बने रहते हैं।उदाहरण के रूप में मधुमक्खियां अपना पूरा जीवन वनस्पति जगत के जीवन चक्र की निरंतरता कायम रखने में लगाती हैं।इसी क्रम में पक्षी या तरह तरह की छोटी बड़ी चिड़ियाएं कीट पतंगों का निरन्तर भक्षण कर वनस्पति जगत के जीवन चक्र को असमय नष्ट होने से बचाती हैं और अपने जीवन के लिये कीट पतंगों के रुप में भोजन की श्रृखंला पर निरर्भर बनी रहती हैं।हम सब को अभिव्यक्त करने वाली आधार भूत धरती के हर हिस्से में प्रचुर मात्रा में जीवन भी हैं और जीवन की ऊर्जा स्वरूप भोजन का अनवरत भंड़ारा भी हैं।फिर भी धरती पर अपने को सर्वज्ञ और सर्वश्रेष्ठ तथा सबसे शक्तिशाली समझने वाले मनुष्य अपने जीवन और भोजन को लेकर चिंतित हैं।धरती पर प्रकृति ने जिस रूप में जीवन और भोजन का चक्र प्राकृतिक स्वरूप में सनातन समय से कायम रखा हैं ।उसमें निरन्तर लोभ लालच से परिपूर्ण मानवीय हस्तक्षेप ने जीवन और भोजन की श्रृखंला की प्राकृतिक निरंतरता पर ही तात्कालिक संकट खड़ा कर दिया हैं।अब मनुष्य खुद ही चिंतातुर हैं कि इसका हल क्या और कैसे हो?
इस धरती पर अकेला मनुष्य ही है जो निरंतर जीवन श्रृखंला और भोजन श्रृखंला दोनों में अपने लोभ लालच और आधिपत्य स्थापित करने की चाहना से स्वनिर्मित संकटों को खड़ा कर परेशान और भयभीत बने रहने को अभिशप्त हो गया हैं। स्वयंभू शक्तिशाली और सर्वज्ञ मनुष्य आज के काल में अपने अंतहीन ज्ञान और गगन चुम्बी विज्ञान के होते हुए ,लगभग असहाय और अज्ञानी सिद्ध हो रहा है ।फिर भी प्रकृति,जीवन और भोजन की अनन्त श्रृखंला के प्राकृत स्वरूप को मानने,जानने,समझने और पहचाने को तत्पर नहीं हैं।जैव विविधता प्रकृति का प्राकृत गुण हैं।संग्रह वृत्ति मनुष्य का लोभ लालच मय जीवन दर्शन हैं।यहीं वह संर्धष हैं जिससे अधिकांश मनुष्य मुक्त नहीं हो पाते।मनुष्य प्रकृति का अविभाज्य अंश होते हुए भी प्रकृति से एकाकार नहीं हो पाता।जीवन और भोजन की अंतहीन श्रृखंला की एक महत्त्वपूर्ण कड़ी होते हुए भी मनुष्य अपने आपको श्रृखंला का अभिन्न अंश स्वीकार नहीं कर पाता।अपनी पृथक पहचान के बल पर एक नये संसार की रचना प्रक्रिया ने मनुष्य और प्रकृति की रचनाओं में तात्कालिक संर्धष धरती पर खड़ा किया है।जिसे समझना और स्वनियंत्रित करना मनुष्य मन के सामने खड़ी सनातन चुनौतीहैं।
महात्मा गांधी ने अपने जीवन से और विचारों से समूची मनुष्यता को अपनी चाहनाओं और लालसाओं को स्वनियंत्रित करने का एक सूत्र दिया ।जो जीवन और भोजन की सनातन प्राकृत श्रृखंलाओं को अपने प्राकृत स्वरूप में निरन्तर चलते रहने की व्यापकऔर व्यवहारिक समझ को समूची मनुष्यता के सम्मुख आचरणगत अनुभव के लिये रखा।गांधीजी का मानना था कि "हमारी इस धरती में प्राणी मात्र की जरूरतों को पूरा करने की अनोखी क्षमता हैं पर किसी एक के भी लोभ लालच को पूरा करने की नहीं।"मनुष्य ने अपनी आधुनिक जीवन शैली में अपने जीवन की जरूरतों का जो गैरजरूरी विस्तार किया हैं उस पर स्वनियंत्रण ही हमारे जीवन और भोजन की जरूरतों को सनातन काल तक पूरा करने को पर्याप्त हैं।
अनिल त्रिवेदी
स्वतंत्र लेखक तथा अभिभाषक


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गाली और गोली हमारी वैचारिक हार है

मनुष्य अपने विचारों को अपना मौलिक गुण मानता हैं।मानवीय सभ्यता का विस्तार मनुष्य के अंतहीन विचार प्रवाहों से हुआ ऐसा माना जा सकता हैं।हांलाकि इस मान लेने पर भी सब सहमत हो यह जरूरी नहीं।फिर भी विचारों का जो सहज प्रवाह हैं वह सहमति,असहमति या सर्वसम्मति का इंतजार नहीं करता वह सनातन स्वरूप में प्रवाह मान ही रहता हैं।विचारों का सनातन प्रवाह ही हमें नित नये विचारों से निरन्तर साक्षात्कार करवाते रहता हैं।इसी से विचार के इस प्राकृत स्वरुप को कोई व्यक्ति,समूह,संगठन,समाज,राज या कोई अन्य साकार निराकार शक्ति न तो बांध पायी हैं न खत्म कर सकती हैं।मनुष्य डर सकता हैं,झुक सकता हैं,कारागार में बंद हो सकता हैं,बिक सकता है,निस्तेज हो सकता हैं यह हर मनुष्य की व्यक्तिगत वैचारिक क्षमताऔर प्रतिबद्धता पर निर्भर हैं ।पर विचार सूर्य की ऊर्जा से भी एक कदम आगे हैं विचार अंधेरे में भी मनुष्य को रास्ता दिखाता हैं।जन्म से नेत्रहीन मनुष्य को प्रकाश की अनुभूति या प्रत्यक्ष संकल्पना नहीं होती हैं।पर विचार मन की आंखों की तरह हैं ,जो नेत्र न होने पर देखना और ज्ञान न होने पर ज्ञान से साक्षात्कार करवाकर अज्ञानी को ज्ञानवान और अविचारी को भी विचार के प्रवाह से सरोबार बिना बताये सतत करता ही रहता हैं।मनुष्य अपनी व्यक्तिगत या सामूहिक सोच समझ के आधार पर विचार के किसी अंश का समर्थक या विरोधी हो सकता हैं पर विचार के अस्तित्व को नष्ट नहीं किया जासकता हैं।
विचार मूलत:केवल प्राकृत विचार ही है।पर मनुष्य ने विचारों में रूप रंग और भाति भाति के भेद और मेरे तेरे का भाव और न जाने कितने तरह के मत मतातन्तर को जन्म दे दिया ।इस तरह मनुष्य ने विचारों को अपने तक,अपने वैचारिक सहमना समूह,संगठन,समाज,धर्म दर्शन,आस्था संस्कार,संस्कृति के दायरे में बांधने की निरन्तर कोशिश की, जो आज भी जारी हैं।इस तरह विचार को व्यक्ति अपनी संपत्ति की तरह माने लगा। इसका नतीज़ा यह हुआ की मुक्त विचार हवा प्रकाश की तरह सर्व व्यापी स्वरूप में न रह मनुष्य के मन में सम्पत्ति भाव के स्वरूप में विकसित होने लगा और मनुष्यों के मन मस्तिष्क में विचारों के वर्चस्व का विस्तार होने लगा।इस तरह से मनुष्यता विचारों को लेकर सहज न रहकर नित नये मत मतान्तरों में बटने लगी।आज स्थिति यहां तक आ पहुंची है कि विचारों के आधार पर हम सब व्यापक होने के बजाय निरन्तर सिकुड़ रहे है।अब हम विचारों को सर्वकालिक समाधान के विस्तार के बजाय संगठन,समुदाय,पक्ष,धर्म,दर्शन,सरकार,देश विचारधारा के एक विचार के रूप में गोलबन्द करके आपस में एक दूसरे से समझ पूर्ण सहज संवाद करने तथा सीखते रहने के बजाय नित नये विवादों को जन्म देने लगे हैं।विचार एक दूसरे को मूलत:समझने,समझाने का अंतहीन सिलसिला हैं जिसने मानव सभ्यता ,संस्कृति और सामुहिकता की समझ का निरन्तर विस्तार किया।
मनुष्य के मन में विचार को कब्जे में कर अपना निजी विस्तार करने की भौतिक लालसायें बढ़ने लगी तो सारा परिदृश्य ही बदलने लगा।गाली और गोली के रूप में मनुष्य ने दो हथियारों को अपने जीवन व्यवहार में विचार पर कब्जा करने के लिये खोजा।गाली और गोली की खोज़ एक तरह से मनुष्यता में विचार के स्वभाविक विस्तार की सीधे सीधे हार हैं।वैसे देखा जाय तो गाली भी मनुष्य का एक तरह का विचार ही हैं।शायद शब्द को हथियार के रूप में इस्तेमाल करने के विचार ने ही गाली को जन्म दिया हो।पर गाली का जन्म एक तरह से विचार की हार ही हैं।विचार संवाद और सभ्यता के विस्तार का साधन हैं।गाली की उत्पत्ति ने विवाद और असभ्यता का विस्तार किया हैं।गाली गोली से ज्यादा मारक हैं गोली से मनुष्य विशेष घायल होता या मरता है पर गाली से विचार सभ्यता ही हार जाती हैं।विचार की ताकत अनन्त है क्योंकि विचार मानवीय शक्तियों का विस्तार करता है,निर्भयता को मन में प्रतिष्ठित करता हैं।निर्भयता का विचार अनन्त से एकाकार होने का मार्ग हैं।इसीसे निर्भय मनुष्य न गाली से डरता हैं न गोली से।कानून ने भी गाली को लेकर व्यवस्था बनायी की गाली यदि सुनने वाले को बुरी लगे तो अपराध की श्रेणी में आयेगी।यदि कोई निरन्तर गाली देता हैं तो लोग उसे अनसुना करना ही समाधान मानते हैं।अपने आप में भयभीत या विचार की ताकत से डरा मनुष्य ही गाली या गोली का प्रयोग अपने लोभ लालच की पूर्ति के लिये करता हैं।आज तक की दुनिया में न तो गाली से कोई समधान हुआ हैं न गोली से।इसके बाद भी विचार की तेजस्विता से भयभीत लोग दिन रात गाली और गोली को ही समाधान समझते हैं।पर विचार हैं कि वह गाली और गोली से न तो धबराता है न ही उन्हें समूल नष्ट करने का विचार लाता हैं।बस गाली और गोली का प्रयोग ही नहीं करता यहीं विचार की जीवनी शक्ति है जो विचार को कायम रखती है।महात्मा गांधी के विचार को गोली नहीं मार पायी और गाली भी सत्य अहिंसा और अभय के विस्तार को रोकने में समर्थ नहीं हैं।जिन्होने गांधी को मात्र शरीर समझा विचार नहीं समझा वे गोली से विचार को मारने की भूल कर बैठे।गोली मारने के सात दशक बाद भी दिन रात गांधी के विचार को गाली देकर गोली और गाली दोनों की क्षणभंगुरता को ही पुष्ट कर रहे हैं।सुकरात और ईसा के साथ विचारों से भयभीत राज और समाज ने विचार को शरीर मानने की भूल की।गाली और गोली मनुष्य की विचार शक्ति की हार हैं।वैसे विचार जय पराजय से परे हैं।पर मनुष्य लोभ लालच और नफरत के अनन्त चक्र में विचार की ताकत को समझे बिना अपनी ताकत का विस्तार करने के लिये जीवन भर गाली और गोली के भंवर में भटकता रहता है की मैं यह पा लूंगा वह हांसिल कर लूंगा।भारत की विचार परम्परा में आदि शंकराचार्य ने निरन्तर विचार को देश भर में भ्रमण कर समझाने का कार्यकर भारत के विचार को लोकमानस में जीवन्त किया।
संत विनोबा का कहना था कि आपने मुझे गाली दी और मैने आपकी गाली लेली तो गाली सफल हो गयी पर आपकी गाली मैने ली ही नहीं तो आपकी गाली असफल हो गयी।निर्भयता का मूल यहीं हैं कि गाली देने वाले की गाली को लेना ही नहीं हैं।इसी में मनुष्य और विचार दोनों की अमरता हैं।

अनिल त्रिवेदी 

पैदल घूमने में ही है घूमने का असली आनन्द

 


हमारे पास आज है,कल भी आज ही होगा

  सनातन समय से हम याने मनुष्यों को आध्यत्मिक वृत्ति के दार्शनिक चिंतक विचारक समझाते रहे हैं कि हमें वर्तमान में जीना चाहिए।वस्तुत:हम पूरा जीवन वर्तमान में ही जीते हैं।हमारे पूरे जीवन काल में वर्तमान ही होता हैं।याने हमारे पास आज हैं,कल भी आज ही होगा।कल आज और कल।हमारी समझ के लिये काल की सबसे आसान गणना।दो कल के बीच आज।पर आज सनातन रूप से आज ही होता है।कल आता जाता आभासित होता रहता हैं।पर आज न आता हैं न जाता हैं हमेशा बना रहता हैं।जैसे सूरज हैं सदैव हैं पर हमें यह आभास होता हैं कि वह उदित और अस्त हो रहा हैं।जैसे हम रोज जागते हैं और सोते हैं पर सोते और जागते समय हम हमेशा होते तो हैं।कहीं नहीं जाते।हम रोज कहते हैं कल आयेगा पर कल कभी आता नहीं हमेशा आज ही होता हैं।जब हम हमेशा आज में ही जीते हैं तो यह बात या दर्शन क्यों उपजा की वर्तमान में जीना चाहिए।आज हमेशा हैं।पर हम आज का जीवन कल की चिंता में जी ही नहीं पाते।जब तक हम जीते हैं आज साक्षात हमारे साथ होता हैं पर हम आज के साथ हर क्षण जीते रहने के बजाय कल की परिकल्पना या योजना से साक्षात्कार में ही प्राय: लगे होते हैं।हमारी सारी कार्यप्रणाली कामनायें,योजनायें व भविष्य को सुरक्षित करने का सोच व चिन्तन कल को सुरक्षित रखने के संदर्भ में ही होता हैं। यहीं हम सब की जीवन यात्रा का एक तरह से निश्चित क्रम बन गया हैं।ऐसा क्यों क्रम बना यहीं वह सवाल हैं जिसका उत्तर विचारक दार्शनिक आध्यात्मिक संत परम्परा के गुणीजन हम को आज में आनन्द अनुभव करने का सूत्र समझाते हैं।

आज के आनंद का अनुभव हम कल की चाहना में ले ही नहीं पाते।हम जब तक हैं हम सब आज ही हैं,जब हम न होंगे तो कल का खेल शुरू होगा और हम न होंगें।
आज और कल का यह खेल सरल भी हैं और जटिल भी हैं।सहज भी हैं और विकट भी हैं।जैसे जीवन सरल भी हैं और जटिल भी हैं।हम आज को समझ नहीं पाते और कल की चिंता में आज की सहजता के साक्षात स्वरुप को भी समझ या देख नहीं पाते।आज प्रत्यक्ष या साक्षात उपस्थित हैं और कल तो पूरी तरह काल्पनिक हो संभावना का खेल हैं। हमको साक्षात से ज्यादा संभावनाओं की जिज्ञासा हैं।यहीं कारण हैं कि हम सब आज से ज्यादा काल्पनिक कल की कल्पनाओं में ही खोये रहते हैं।आज साक्षात या प्रत्यक्ष अनुभूति हैं और कल साक्षात्कार से परे की विकट परिकल्पना हैं।आज को पूर्णता से महसूस करना ही जीवन की पूर्ण और प्राकृतिक समझ हैं।इसे यों भी समझा जा सकता है की जीवन समझने की नहीं स्वयं स्फूर्त और निरन्तर चलने वाली प्रक्रिया हैं जिसके रूप रंग अनन्त है पर स्वरूप एक ही हैं।
हम अपने बाल स्वरुप में आजकल के चक्र से परे या अनभिज्ञ होते हैं।बचपन केवल आज में केवल भूख प्यास जैसी ही अन्य प्राकृतिक हलचलों तक ही सीमित होता हैं।रोना,हंसना और किलकारी भरना ही हमारी प्राकृतिक हलचले होती हैं जो हमारे परिजनों के आनन्द या चिन्ता के विषय होते हैं।जैसे जैसे हमारे स्वरूप का विस्तार होता हैं।हमारा आज कल का चक्र प्रारम्भ हो जाता हैं।हमारे प्रत्यक्ष अनुभव हमें चिंतन की अनवरत धारा का राही बना देते हैं।अब हमारे जीवन के काल क्रम में इतने सारे सवाल, जिज्ञासा और संकल्प उभरने लगते हैं जिनके चक्रव्यूह में हम जीवन भर घुमते ही रहते हैं।इस तरह हमारा आज कल के सवालों से निपटने की तैयारी में इतनी तेजी से गुजरने लगता हैं कि आज के आनंद की अनुभूति ही नहीं हो पाती ।हम नींद से जागते हैं और
हमारा रोज़ का जीवन जितना शांत और एकाग्रचित्त होता हैं उतना हमारा जीवन वायु की तरह प्राणवान होता हैं।हमारी निरन्तर गतिशीलता बनी रहती हैं।पर यदि कल की चिंता मन में आती तो फिर हमारी एकाग्रता निरंतरता और गतिशीलता बार बार रूक सी जाती है और कल की चिंता में आज व्यर्थ गया यह भाव मन को अशांत कर निराशा का भाव आ जाता है। कोई यह कह सकता है कि यह कहना बहुत सरल है कि शांतचित्त और एकाग्र रहो।पर यह प्राय:हो नहीं पाता क्योंकि हमारे अनुभवों के निरन्तर विस्तारित होते रहने से हम शांत और एकाग्रचित्त नहीं रह पाते।हमारे आवेग,हमारे मनोभाव और हमारे अंतहीन विचार हमारे आज के जीवन को तय करते हैं।आज यदि कल की चिंता या चिन्तन में ही लगा रहा तो आज अपने मूल स्वरूप से दूर चला जाता हैं।आज की हमारी संकल्पना क्या है?क्या जीवन का होना आज माना जा सकता है।जीवन और आज एक ही बात है यह हम समझ सकते हैं।तो बात एकदम सरल हो सकती है,समझने के लिये भी और निरन्तर वर्तमान में आनन्द से जीने के लिए भी।जो गुज़र गया वह अनुभव हैं,जो प्रत्यक्ष है वो ही जीवन हैं।इसे जीवन के संदर्भ में समझे केवल आज ही जीवन है अत:आज और जीवन को कल की सुरक्षा के लिये जीना किसी के लिये संभव ही नहीं हो सकता।तब यह बात एकदम सरलता से समझ सकते है कि प्रत्यक्ष जीवन में कल जैसा कुछ संभव ही नहीं है जो कुछ है वह केवल आज ही है।कल तो जीवन में प्रत्यक्ष आता ही नहीं हैं।कल की कल्पना आभासी है किसी भी जीवन का साक्षात्कार कल से संभव ही नहीं है।इसीसे मनीषियों का चिन्तन जीवन के हर क्षण जीवन्त बने रहने के संदर्भ में है किसी भी क्षण जीवन को स्थगित कर कल जीने या कल के जीवन की सुरक्षा के लिये संसाधनों के संग्रह की प्रयोजनहीनता को स्पष्ट समझाने हेतु कहा हैं।मनुष्य के पास जीवन की क्षणभंगुरता की समझ आदिकाल से हैं।यहीं समझ उसे आज का आनन्द उपलब्ध करवाती है।कल के लिए न तो कुछ योजना बनानी चाहिए और न कल के लिये कुछ लंबित रखना चाहिए।हमारी लोक समझ का दर्शन हैं।
"काल करे सो आज कर,आज करें सो अब
पल में परलय होयगी तो बहुरी करेगा कब"
अनिल त्रिवेदी

लोग भीड़ नहीं जीवन की पहचान हैं

 


Friday, March 5, 2021

बिना मिले झगड़ते रहने वाली दुनिया

झगड़ा मनुष्य का गुण है या अवगुण इस पर कोई और टीका टिप्पणी नहीं।पर आज सूचना क्रांति के आभासी युग में शान्त और सरल स्वभाव के दुनिया भर के लोग भी घर बैठे ही झगड़ों के चक्रव्यूह में उलझे ही नहीं, निरन्तर रहने भी लगे हैं।इसी से मैंने शुरूआत में ही स्पष्ट किया कि झगड़ा, गुण है या अवगुण ,इस पर कोई बात नहीं करेगें।झगड़ा इतना तगड़ा है कि हम चाहे न चाहे यदि हम आभासी दुनिया के आदि हो गये है तो आभासी झगड़ा हमारे जीवन का अविभाज्य अंग हो गया है।यदि हम आभासी दुनिया में रचे बसे न हो तो फिर हम अपने मन के राजा है।अपन भले और अपनी दुनिया भली।इससे उलट यदि हम आभासी दुनिया में लिप्त हैं तो हमारी दशा दुनिया भर की हर छोटी बड़ी क्रिया प्रतिक्रिया की कठपुतली की तरह है।जो दूसरों की उंगलियों पर हर समय नाचती रहती है।वास्तविक दुनिया और आभासी दुनिया में आकाश पाताल जैसा भेद है फिर भी आज की दुनिया की आबादी वास्तविक दुनिया से ज्यादा आभासी दुनिया की आदि होती जा रही है।आभासी दुनिया की चकाचौंध और तेज गति शायद आभासी दुनिया के प्रति मनुष्य के बावलेपन का मुख्यकारक हो। जीवन के प्रारम्भ से मनुष्य प्रत्यक्ष साक्षात्कार से ही वास्तविक दुनिया को जान समझ या देख पाता था।यह सब जानने समझने और देखने के लिये शरीर को हर जगह ले जाये बिना कुछ देख सुन या प्रत्यक्ष जान समझ नहीं सकते थे।आभासी दुनिया ने दुनिया का सबसे बड़ा उलट फेर कर दिया अब किसी बात के लिये कहीं जाने की जरूरत नहीं दिन भर कहीं भी कभी भी बैठे बैठे या लेटे लेटे ,दुनियाभर की छोटी बड़ी सारी गतिविधियां, जिनका आपसे सीधा या दूर का भी कोई ताल्लुक नहीं हैं फिर भी सुबह उठने से लेकर रात सोने तक आप की अंगुलियों की गतिशीलता से आभासी रूप से आपके जीवन में हर समय हाज़िर हैं।इसका नतीज़ा हम सबको महसूस तो हो रहा है पर उसे हम जानते बूझते भी इस बात को स्वीकार नहीं कर पा रहे हैं।नतीजा हमारे भौतिक जीवन का प्रवाह एक छोटे से गढ्ढे के पानी जैसा सिकुड़ गया है और मानस चौबिसों घण्टे बारहों माह आंधी तूफान की तरह हो गया और हमारी जीवन की लय ही न जाने कहां भटक गयी और हमारी सारी जीवनी शक्ति अंगुलियों में सिमट गयी। पहले ताकतवर लोग दुनिया के लोगों को अपनी अंगुलियों के बल पर नचाने का सपना देखते थे या नचाते थे अपने साम्राज्य की सत्ता ,सेना और सम्पत्ति के बल पर।आज हम सब सूचना तकनीक के काल में खुद ही खुद की अंगुलियों के बल पर खुद का पैसा स्वेच्छा से आदत की गुलामीवश लुटाकर नाचने लगे हैं।डरने लगे हैं ,डराने लगे हैं ,छाने लगे हैं, फूल कर कुप्पा होने लगे हैं और असमय मुरझाने लगे हैं।बैठे बैठे ही कहीं गये- मिले बगैर ही आभासी अनुयायी नहीं फालोअर बनाने लगे हैं और अपने आभासी आंकड़ों पर इतराने लगे हैं।भले ही इतनी लम्बी जिन्दगी में हमारे पास सांसों का हिसाब न हो पर सूचना तकनीक के पास हमारे पल-पल का पूरा हिसाब हैं जो हमारी अंगुलिया हर क्लिक पर दर्ज करती जा रही हैं।

      सूचना तकनीक ने भले ही बहुत सारी बातों को सुगम और गतिशील बनाया हो पर हमारी निजता को छिन्न भिन्न ही नहीं सारी दुनिया की पहुंच में ला दिया है या विकास की सरकारी भाषा में कहें तो निजता का लोकव्यापीकरण कर दिया हैं। आज की दुनिया में उसी मनुष्य के पास अपनी निजता का सुख या सानिध्य हैं जो सूचना तकनीक को अपने इस्तेमाल का विषय ही नहीं मानता।अन्यथा सारी दुनिया के लोग सूचना तकनीक के साधनों के इतने अधिक आदि हो गये की सिम खत्म हुई नहीं की तत्काल रिचार्ज करवाना जैसे सांस लेने से भी अधिक जीवन की अनिवार्यता हो।उस पर भी आनन्द यह है किेे सूचना तकनीक के काल से पहले दूसरे के पत्र को खोल कर पढ़ लेना न केवल बदतमीजी समझा जाता था वरन एक दूसरे की निजता को निभाना निजी और सार्वजनिक जीवन की अलिखित सभ्यता की सर्वमान्य परम्परा थी।यहां सभ्यता की सर्वमान्य परम्परा शब्द का इस्तेमाल इसलिये किया है की हमारे मानवी जीवन में असभ्यता के भी बहुत गहरे संस्कार है जिनका विस्फोट सूचना क्रांति के दौर में दिन दूना रात चौगुना होता जा रहा हैं और हम सब कुछ जानते बूझते न केवल बेखबर हैं वरन अपने गांठ का पैसा खर्च कर स्वेच्छा से अपनी निजता का विसर्जन कर रहे हैं।

      सूचना तकनीक ने सब कुछ खोल दिया याने आजाद कर दिया पर निजता की आजादी को बिना पूछे हमसे छीन लिया और सब निरन्तर स्वेच्छा से भुगतान कर निजता की आजादी को समाप्त होते देख शायद इसलिये खुश हैं कि भले ही हमारी निजता की आजादी लुप्त हो गयी हो पर दूसरो की निजता में सुबह से रात तक हस्तक्षेप का आनन्द तो बिन मांगे ही मिल गया।भले ही हम अपनी आजादी की रक्षा नहीं कर पाते पर दूसरों की निजता को आभासी रूप से छीनते रहने का अंतहीन औजार तो मिल गया।इसी में पूरी दुनिया मगन हो अंतहीन असभ्यता की नयी सभ्यता का निरन्तर फैलाव कर रही है।साथ ही सब कुछ जान कर भी अनजान बन कर सूचना क्रांति को ही जीवन की अनिवार्यता की नयी आभासी सभ्यता मानने में प्राणप्रण से जुट गयी हैं । साथ ही साथ बैठे बैठे या लेटे लेटे ही जीवन के सारे व्यवहार प्रत्यक्ष कहीं जाये बगैर आभासी रूप से करके ही मगन होती जा रही है और जीवन के विराट प्रत्यक्ष स्वरूप को भुलती जा रही हैं।प्रत्यक्ष के प्रमाण को स्वेच्छा से त्यागकर आभासी जीवन की मृगतृष्णा से आशा से ज्यादा अपेक्षा कर जीवन की प्रत्यक्ष प्राकृतिक आजादी और निजता को इतिहास में दफन कर रही हैं।जो सभ्यता अपनी आजादी और निजता की कीमत पर नयी विकसित दुनिया खड़ी करती जा रही हैं वह गतिशीलता की दौड़ में कूद तो गयी हैं पर मनुष्य जीवन के प्रत्यक्ष प्राकृतिक जीवन से अलग थलग हो कर एक भौंचक मानव समाज में बदल रही हैं। जो प्रत्यक्ष को छोड़ आभासी दुनिया का दीवाना है।प्रत्यक्ष दुनिया अपने मानवीय मस्तिष्क से हर चुनौती का हल खोजने का सामर्थ्य बताती रही है पर आभासी दुनिया का भौचक समाज आतंक भय उत्तेजना अंधानुकरण और विचारहीनता की भेड़चाल को ही एकमात्र रास्ता मानता है जिसमें जीवन भर बिना सोचे समझे टुकुर टुकुर देखते रहना ही जीवन का एकमात्र क्रम बन जाता हैं।हम प्रत्यक्ष दुनिया के जीवन्त मानव से आभासी दुनिया की भेड़ चाल के अंतहीन राहगीर में अपने आप को क्योंकर बदलते जा  रहे हैं यही वर्तमान का खुला सवाल है।जिसे हम सब निजी और सार्वजनिक जीवन में जानते बूझते भी अनदेखा कर रहे हैं।हमारी सामूहिक चुप्पी हमें संवेदनशील मानव सभ्यता से भीड़ की असभ्यता का आदि बना चुकी हैं यही काल की सबसे बड़ी प्रत्यक्ष चुनौती है जिसका हमें अहसास भी नहीं हो पा रहा है तभी तो हम सब आभासी दुनिया में तेज रफ्तार से भागते रहने को ही जीवन मान रहे हैं।

आन्दोलन जीवन का प्रवाह है


जीवन गतिहीन निस्तेज जड़ता न होकर नित नये प्रवाह की तरह निरन्तर गतिशील तेजस्विता का पर्याय है।किसी सरकार का आना-जाना बनना बिगड़ना महज एक घटना है।प्राय:सरकारें लकीर की फकीर की तरह होती हैं पर जनआन्दोलन हर बार सृजनात्मक परिवर्तन की नयी नयी लकीरें खींचना चाहता हैं।हर आन्दोलन का मूल विचार एकदम सफल ही हो यह आवश्यक नहीं पर हर आन्दोलन में एक सपने को साकार करने की संभावना जरूर छिपी होती है।जीवन एक वैचारिक आन्दोलन है तभी तो वह सतत नित नये प्रयोगों के विचारों से प्रवाहमान होता रहता है।सरकारें कई रूप रंगों की होती है पर आन्दोलन का  एक ही रूप और रंग होता हैं जीवन के सवालों को बिना डरे पूरी मानवीय ताकत से उठाना और समाधान तलाशते रहना।दुनिया में जब तक जीवन है तब तक आन्दोलन होते रहेंगे।जिस दिन जीवन ही जड़ हो जाये या अचेतन में चला जायगा तो आन्दोलन मंद हो जायेगा पर खत्म नहीं होगा।आन्दोलन एक तरह से गतिशील जीवन की जीवनी शक्ति है या जीवन की सनातन विरासत।जीवन ही आन्दोलन है या आन्दोलन ही जीवन है।अवाम, जनता या लोग कभी आन्दोलन से नहीं घबराते,आन्दोलन तो अवाम की जीवनी शक्ति की तरह हैं।अवाम की जीवनी शक्ति से हर रूप रंग की सरकार की संवेदनशीलता बढ़नी चाहिये पर कोई भी सरकार न तो आन्दोलन का स्वागत करती है और न ही खुद होकर आगे बढ़कर संवाद प्रारम्भ करती है।उत्तरदायी सरकारें भी आन्दोलन के सवालों को लेकर पता नहीं क्यों लगभग हमेशा अनुत्तरदायी या अनमनी ही बनी रहती हैं?अपने ही लोगों से खुलेमन से संवाद में हिचकीचाहट क्यों?आन्दोलनों को लेकर सरकारों का अनमनापन सरकारों के कामकाज करने की मूल दृष्टिहीनता को ही उजागर करता हैं।सरकारें आन्दोलनों को कुचलने के बजाय जनमानस के असंतोष या विचारों को देखने समझने का अवसर आन्दोलन में देखें समझे तो देश और दुनिया की सरकारें ज्यादा असरकारी रूप में अपना कामकाज कर पायेगी।जिस दृष्टि से समस्याओं को सरकारें देख समझ नहीं पाती वह दृष्टि और समझ आन्दोलनों से खुले संवाद से अनायास ही मिल सकती है।आन्दोलन जनमानस में उठ रहे सवालों को समझने का खुला अवसर है यह देश और दुनिया की सरकारों को समझ नहीं आता और सरकारें आन्दोलन को खत्म करने या कुचलने  के तौर तरीकों में उलझकर समस्या के समाधान के बजाय अपने देश के लोगों से ही घमासान में अपनी ताकत झोंक देती हैं।देश और दुनिया में लोगों ने सरकारों को जन्म ही जनसमस्याओं के सहज और निरन्तर समाधान के लिये ही दिया है न कि जनमानस की अनसुनीकर निरन्तर अपने ही नागरिकों से अकारण घमासान करते रहने के लिये।

    शायद दुनिया में लोकमानस की सतत रखवाली करने वाली  ऐसी सरकार  कभी भी नहीं आयेगी जो आन्दोलन की राह को लोकमानस में जन्मने ही न दे।इसका मूल कारण सरकार का महज एक घटना होना हैं।घटना घटती रहती है पर हर समय सरकार जीवन्त गतिशील और प्रवाहमय नहीं हो सकती है।सरकारों की यही वैचारिक जड़ता आन्दोलनों की असली तासिर को समझे बिना ही अपनी सरकारी ठसक में मगन रहती हैं।खेती किसानी जीवन की निरन्तरता को बनाये रखनेवाला बुनियादी प्राकृतिक काम है।खेती किसानी करने वाली जमाते प्राय:खेती किसानी जैसे सतत प्राकृतिक उत्पादक कामकाज में ही जुटे रहते हैं।विधि विधान बनाने का विधायी कामकाज संसद और विधायिका का सामान्य कामकाज हैं।पर इन दिनों भारत के लोकतंत्र में सवाल उठाने वाली जमाते प्राय: मौन हो चली है और मौन रहने वाली जमाते बुनियादी सवाल बुलन्दी से उठा रही हैं।जब संसद मौन हो जाती है तो सड़कें बोलने लगती हैं।सड़कों पर आवाज बुलन्द होने का अर्थ ही है कि संसद बहस चर्चा विचार विमर्श के बजाय चुप हो गयी हैं।संसद में बहस न हो तो विधायी कार्य यंत्रवत जड़ता में बदल जाता हैं।जीवन्त और समग्रता से निर्भिक बहस ही संसदीय प्रणाली की जान है।संसद में सन्नाटे से ही सड़कें मुखरता से आवाज उठाती हैं।सड़को पर उठे लोगों के सवाल लोकतंत्र को निखारते हैं।सड़क महज आवागमन का जड़ साधन नहीं लोगों की आवाज उठाने वाला प्रभावी औजार हैं।आवाज़ उठाते लोग व्यवस्था को निरन्तर सतर्क और चाकचौबन्द बनाये रखने में मदद करते हैं। जब अवाम सड़क पर आती हैं तो देश दुनिया की सारी सरकारें कहने लगती हैं लोगों को आवागमन में परेशानी हो रही हैं।सरकारें लोकजीवन की परेशानी को निरन्तर समझने और सुलझाने में प्राणप्रण से रूचि नहीं लेती और जब लोगों के पास कहीं सुनवाई का कोई रास्ता नहीं बचता तो वे मजबूर होकर  सड़क पर आते हैं और सरकारों को अपने मूलदायित्व से भटकने से बचाते हैं।तभी तो भारत के संविधान में शांतिपूर्ण तरिके से लोगों को एकत्रित हो अपनी बात अभिव्यक्त करने का मूल अधिकार रखा गया हैं।

    आजादी के आन्दोलन में चंपारण के किसानों ने बुनियादी सवाल उठाया था।आज आजाद और लोकतांत्रिक भारत के किसान भी बुनियादी सवाल उठा रहे हैं।भारत की खेती किसानी का बुनियादी ढांचा कैसा होगा?किसान स्वयं अपना मालिक होगा या बाजार का एक अदना मोहरा?बाजार का राज चलेगा या खेती किसानी में स्वराज रहेगा।मंडी या खेती किसानी या उपज के न्यूनतम मूल्य ,क्रय विक्रय और भंडारण से संबन्धित तीनों कानून को जिस तरह से वर्तमान संसद और सरकार ने पारित किया उस तरीके ने  सोती हुई जनता को जगा दिया और आम तौर पर चुप रहने वाली खेतिहर जमाते जिस तेजस्विता और तेवर से सवाल उठा रही है उससे समूचे देश में यह खुला संदेश गया है कि हमारे लोकतंत्र का तंत्र भले ही जड़ हो गया हो पर लोक तो चैतन्य हैं।

   सरकार जब यह मानने लगती है कि हम तो सरकार हैं हम जो करेंगे उसे सब मानेगें ही तो सरकार असरकारी नहीं रह पाती।वही सरकार असरकारी हो सकती है जो सब को साथी सहयोगी माने, किसी से न तो कुछ  छिपाये और न ही किसी को डराये ।अच्छे कानून वे होते हैं जो आम जनता को अपने आप समझ आ जाय अभियान चला कर या रैलियां कर समझाना न पड़े।जैसे सूरज उगता हैं तो उजाला अपने आप आ जाता हैं वैसे ही कानून को बनाने का तरीका भी हर देशवासी के मन को शंका से परे हर बार खुला और पारदर्शी रहना ही चाहिए।चुनी हुई सरकारें भी गलती से परे नहीं है।संसद भी गलती से परे नहीं है।लोकतंत्र का मतलब ही है कि हम सब अपनी जानी अनजानी गलतियों से निरन्तर अवगत होते रहे  और अपने निर्णयों व व्यवहार में हुई गलतियों को स्वीकार कर सुधारते रहे।लोकतंत्र सतत चलने वाली वह लोकव्यवस्था हैं जिसमें हम मिलजुल कर खुले मन से एक दूसरे से सीखते- सिखाते हैं।लोकतंत्र में सीखने की तो अंतहीन गुंजाइश हैं पर अपनी गलती पर अवाम को सबक सिखाने का कोई अवसर ही नहीं हैं।

    भारत में खेती किसानी एक जीवनपद्धति है।लाभ हानि का व्यापार नहीं।भारतीय खेती किसानी यंत्रवत उत्पादन और वितरण का व्यवहार न होकर जीवन की सनातन सभ्यता हैं।सभ्यता की जीवनी शक्ति ही भारतीय खेती किसानी की मूल ताकत हैं।भारत का किसान जानता समझता है कि खेती किसानी का कुदरती तरीका क्या है।किसानी करने वाले नौकर चाकर और वेतनभोगी यंत्रवत व्यवस्थागत कामकाज करने वाली जमाते न होकर इस देश के चप्पे चप्पे में अपनी समझ,साधन,सहयोग के साथ अकेले अपनी रोटी ही नहीं अपने गांव देश और दुनिया की रोटी की खुराक पैदा करने में सदियों से बिना रूके और झुके लगी हुई विकेन्द्रित जीवन्त बिरादरी है जो केवल खुद की ही नहीं प्राणीमात्र की जीवन की जरूरत यानी खुराक को पैदा करने में अपना सब कुछ लुटाती आयी है और लुटाती रहेगी।यहीं आज के भारत में चल रहे किसान आन्दोलन की जीवनी शक्ति और हम सब के जीवन का खुला सवाल है जिसका हल हमें हिल मिलकर खोजना ही होगा।हिलमिलकर जीना और सबको समझना समझाना यही आन्दोलनकारी जीवन का सरल सहज अर्थ है।


             अनिल त्रिवेदी