Wednesday, March 16, 2011
Saturday, March 12, 2011
शंकरलाल बागड़ी - चलते-फिरते सन्दर्भ ग्रन्थ थे वे -- अनिल त्रिवेदी
शंकरलाल बागड़ी समकालीन मध्यप्रदेश के विख्यात अभिभाषक और न जाने कितनों के मित्र व मार्गदर्शक तो थे ही, पर गहरे चिन्तक, दार्शनिक होने के साथ ही जीवन की जिन्दादिली के सच्चे उपासक थे। अच्छे वकील से लोगों की अवधारणा प्राय: यह होती है कि उसके पास वकालत का अन्दाज अपने आप में अनोखा था। विधि एवं न्याय शास्त्र के सारे सिद्धान्त उनके दिमाग में जीवन्त भरे पड़े थे। विधि ही नहीं, ज्ञान का समूचा महासागर उनके मन मस्तिष्क में सदैव व तत्काल उपलब्ध रहता था। उन्हें कभी सन्दर्भ के लिए पुस्तकों व ग्रन्थों की जरूरत नहीं होती थी। वे चलते-फिरते सन्दर्भ ग्रन्थ थे। समकालीन समय में प्राय: अधिकांश लक्ष्मीपुत्र धन संपत्ित के जोड़ बाकी गुणाभाग में ही अपना जीवन व्यतीत करने वाली जिन्दगी पसन्द करते हैं, पर बागड़ी लक्ष्मीपुत्र होते हुए भी जिन्दगी के अनुभवों, जिन्दादिली या जिन्दगी के सरस्वती साधक रूप के जीवन यात्री थे। उनका समूचा जीवन जो कुछ भी हमारी धरती पर बिखरा पड़ा है, उसे जानने, समझने और सीखते रहने की सहज, सरल यात्रा थी। वे लोकतन्त्र, मानव अधिकार व लोक अदालत को बढ़ाने वाले आन्दोलनों से आजीवन जुड़ रहे। वे लोकनायक जयप्रकाश नारायण द्वारा स्थापित लोक स्वतन्त्रता संगठन (पीयूसीएल) मध्यप्रदेश के अध्यक्ष रहे। नर्मदा बचाओ आन्दोलन तथा पश्चिम मप्र के आदिवासी अंचल में चल रहे परिवर्तन धर्मा जन आन्दोलनों से उनका गहरा जुड़ाव था। जीवन के किसी भी विषय पर साधिकार व समाधानकारी बातचीत किसी भी आयु के व्यक्ति से पूरी गंभीरता व सहजता से करना और उसमें घुलमिल जाना उनके व्यक्तित्व की अनोखी विशेषता थी। उनसे मिलने आने वालों की तो एक तरह से पूरी शंकरजी की बरात ही थी। धन्ना सेठों से लेकर निपट दरिद्र तक, घोर बुद्धिजीवी से लेकर निपट बुद्धिहीन तक उनके मुरीदों का एक बड़ा समुदाय है। शंकरलाल बागड़ी आत्मविश्वास का दूसरा नाम है। उनमें स्वयं तो अदम्य आत्मविश्वास था ही, पर वे दूसरों में भी आत्मविश्वास पैदा करने वाली वकालात लोगों को सिखाते रहते थे। उन्होंने न जाने कितने लोगों को मुकदमा बनाकर दिया और कहा अपनी लड़ाई खुद लड़ो। ऐसा कहना- ऐसा बोलना। वे लोगों को अपनी लड़ाई खुद लड़ना सिखाते थे। विधि के जिन विद्यार्थियों ने कक्षा में उनसे पढ़ा है, वे यह देखकर ही अपने गुरु की विद्वता पर मुग्ध हो जाते थे कि यह कैसा गुरु है जिसे पढ़ाते समय किसी पुस्तक या नोट्स की जरूरत ही नहीं होती। बिना किसी सन्दर्भ सामग्री के विधि के गूढ़तम सिद्धान्तों को कितनी सहजता सरलता से अपने विद्यार्थियों को समझा देते थे। लोक राजनीति में उनकी गहरी रुचि और भागीदारी थी। वंचितों के हकों के लिए और अन्याय के शिकार लोगों के लिए वे सड़क से लेकर न्यायालय तक संघर्ष में साथ देते थे। वे निर्वाचन कानून व संवैधानिक मामलों के गहरे जानकार थे। उनकी सोच, कार्यशैली व जिन्दगी सबके आकर्षण का विषय थी। वे किसी से डरते नहीं थे, सत्ता और संपत्ित के रौब में वे कभी नहीं आते थे। उन्होंने हमेशा लोगों के साथ उनका अपना बनकर, उनके संघर्ष व आन्दोलनों के साथ मजबूती से खड़े रहने की ही कोशिश की। लोकभाषा के पक्षधर होते हुए भी उनके अंग्रेजी ज्ञान का लोहा मानते थे। हिन्दी-अंग्रेजी में उन्होंने सामयिक विषयों पर काफी लिखा। किसी को सरलता से सहज ही निसंकोच उपलब्ध रहे, यही उनकी संपूर्ण जिन्दगी की सबसे बड़ी विशेषता थी। क्ख् मार्च क्फ्म्े को जन्मे बागड़ी अक्सर कहते थे कि मैंने अपनी जिन्दगी में साइकिल, स्कूटर, मोटरबाइक, जीप, कार, ट्रक, ट्रैक्टर, बुलडोजर, हवाईजहाज से लेकर बैलगाड़ी-तांगा तक चलाया पर पानी का जहाज चलाना रह गया। अपनी यह इच्छा पूरी किए बिना ही वे ख्म् फरवरी ख्0क्0 को हमारे बीच से चले गए। पर सबकुछ चलाने के बाद भी उन्हें पैदल चलना बहुत पसन्द था। उनका मानना था कि हम सब आज तक जितना जानते हैं उससे अधिक नहीं जानते हैं। इसी कारण हम को अपने ज्ञान का बखान करने के बजाय हमें अपने अज्ञान का भान होना चाहिए, तभी हम नित नई बातें सीख सकते हैं। |भ्वीं जयन्ती पर उनका सादर स्मरण।
Thursday, March 3, 2011
सब चुप हैं! क्या? किसे कहें?
सब चुप हैं! क्या? किसे कहें?
अनिल त्रिवेदी
हमारे यहां इन दिनों युवाओं के मामले में बहुत सतही चर्चा होती है। हर कोई कहता है कि युवा भटक रहे हैं। मानो हम सब बड़े-बूढ़े सही रास्ते चल रहे हैं। एक सवाल शहरी युवाओं के संबन्ध में यह भी उठाया जाता है कि वे अपराध की ओर प्रवत्त हो रहे हैं। यह भी कहा जाता है कि आज का युवा बेरोजगारी के कारण निराश है। यह भी कहा जाता है कि बाजार की चकाचौंध ने अपने खर्चों की जरूरतों के लिए युवाओं को अपराध जगत का रास्ता बताया है। आए दिन अखबारों में छोटी उमर के युवाओं द्वारा छोटी-मोटी बातों पर हत्या जैसे अपराध करने के समाचार छपते रहते हैं। कभी लगता है कि चाकू, तमन्चे-पिस्तौल चलाने की घटनाओं की संख्या में छोटी उमर के लड़कों की भागीदारी बढ़ रही है। कभी आभास होता है कि शराब व अन्य नशों में लड़के-लड़की तेजी से आगे जा रहे हैं। इसके साथ एक दृश्य यह भी उभर रहा है कि छोटी-छोटी बातों को लेकर छोटी उमर के बच्चे आत्महत्या कर रहे हैं। यानी एक ओर हत्या है तो दूसरी ओर आत्महत्या। एक दृश्य यह है कि गति के पीछे बावले हमारे युवा वाहन दुर्घटनाओं में भी अकाल मृत्यु को प्राप्त हो रहे हैं। पर उक्त परिदृश्य भारत के युवाओं का एकांगी चित्रण है, सही व संपूर्ण आकलन नहीं है। अच्छी पढ़ाई, अच्छे कॅरियर की आशा में जितनी संख्या में भारत के लड़के-लड़की वर्तमान में शिक्षण संस्थाओं में जा रहे हैं, उतने आज से पहले के कभी नहीं गए। आज के समय में जितनी बड़ी संख्या में युवक-युवतियां उच्च शिक्षण के लिए शिक्षण संस्थाओं में जा रहे हैं, उतनी बड़ी संख्या में हमारे पास काबिल, शिक्षा तथा शिक्षण से सरोकार रखने वाले शिक्षकों का दिन प्रतिदिन अभाव होता जा रहा है। पढ़ने-लिखने वाले विद्यार्थियों की एक वाजिब शिकायत यह है कि हमें पूरी गंभीरता से पढ़ाया नहीं जाता। उनका यह भी कहना है कि जिस हिसाब से ऊंची फीस उनसे ली जाती है, उस स्तर का शिक्षण व शिक्षक शिक्षण संस्थाओं में उपलब्ध ही नहीं है। इस समय हमारे यहां किसी भी काम को खुद होकर जवाबदारी स्वीकारने के बजाय एक-दूसरे पर जवाबदारी ढोलने की कार्यसंस्कृति का ही ज्यादा विकास दिखता है। हर कोई परिस्थिति को लेकर परेशान है, हैरान है पर इस परिदृश्य को बदलने की व्यक्तिगत व सामूहिक जवाबदारी लेने को तैयार नहीं है। ऐसा परिदृश्य होते हुए भी विश्व बाजार भारत के युवाओं को अपनी ओर तेजी से आकर्षित कर रहा है। बड़ी संख्या में भारत के युवा विश्व बाजार के अवसरों में अपना स्वर्णिम भविष्य देखते हुए तेजी से भागादौड़ी कर रहे हैं। इस भागदौड़ का एक दृश्य भारत में यह उभरने लगा है कि कई नए बच्चे माता-पिता से ज्यादा कमा रहे हैं। इसका प्रभाव शहरी मध्यम वर्ग पर अच्छा-खासा दिखाई देने लगा है। अब घर, परिवार, समाज में युवा वर्ग आर्थिक शक्ति के केन्द्र बनते जा रहे हैं। मध्यम वर्ग में पहले एक ही आर्थिक शक्ति थी, अब पति, पत्नी और बच्चे सब कमा रहे हैं। माता-पिता सेवानिवृत्ित के दौर में जितनी तनख्वाह पाते हैं उससे तो आजकल कई बच्चों के प्रारंभिक वेतन की शुरुआत हो रही है या उससे भी ज्यादा पा रहे हैं। इस सबका घर परिवार के सोच और व्यवहार पर अच्छा-खासा असर दिखाई दे रहा है। आज परिदृश्य यह नहीं है कि आज का युवा बड़ों की सुन नहीं रहा है वरन् परिदृश्य यह है कि समाज के बूड़े-बूढ़ों और आगेवान लोगों की युवा लोगों से स्वयं होकर सीधी बात या संवाद करने की हिम्मत ही नहीं है। बड़े चुप हैं! क्या कहें? कैसे कहें? किसे कहें! तो फिर मन ही मन कुड़कुड़ाने या बड़बड़ाने का दौर इस समय चल रहा है। हर कोई मन ही मन बड़बड़ रहा है। मन ही मन असन्तुष्ट है, लाचार है पर देश के बड़े बड़ों और आगेवानों में खुद होकर युवा वर्ग से सीधा संवाद करने व करते रहने की ताकत ही नहीं बची। आज का युवा आने वाले समय का आगेवान होने जा रहा है। अभी भी उनसे सीधा, स्फूर्त संवाद नहीं किया तो फिर घर की जानकारी भी उनके फेसबुक अकाउंट पर ही मिलेंगी यह तय है।
गांधीवादी चिन्तक
युवा वर्ग से बड़ों का संवाद जरूरी है, वर्ना फिर घर की जानकारी भी उनके फेसबुक अकाउंट पर ही मिलेगी।
Tuesday, March 1, 2011
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