Thursday, March 3, 2011

सब चुप हैं! क्या? किसे कहें?


सब चुप हैं! क्या? किसे कहें?

अनिल त्रिवेदी

हमारे यहां इन दिनों युवाओं के मामले में बहुत सतही चर्चा होती है। हर कोई कहता है कि युवा भटक रहे हैं। मानो हम सब बड़े-बूढ़े सही रास्ते चल रहे हैं। एक सवाल शहरी युवाओं के संबन्ध में यह भी उठाया जाता है कि वे अपराध की ओर प्रवत्‌त हो रहे हैं। यह भी कहा जाता है कि आज का युवा बेरोजगारी के कारण निराश है। यह भी कहा जाता है कि बाजार की चकाचौंध ने अपने खर्चों की जरूरतों के लिए युवाओं को अपराध जगत का रास्ता बताया है। आए दिन अखबारों में छोटी उमर के युवाओं द्वारा छोटी-मोटी बातों पर हत्या जैसे अपराध करने के समाचार छपते रहते हैं। कभी लगता है कि चाकू, तमन्चे-पिस्तौल चलाने की घटनाओं की संख्‌या में छोटी उमर के लड़कों की भागीदारी बढ़ रही है। कभी आभास होता है कि शराब व अन्य नशों में लड़के-लड़की तेजी से आगे जा रहे हैं। इसके साथ एक दृश्य यह भी उभर रहा है कि छोटी-छोटी बातों को लेकर छोटी उमर के बच्चे आत्महत्या कर रहे हैं। यानी एक ओर हत्या है तो दूसरी ओर आत्महत्या। एक दृश्य यह है कि गति के पीछे बावले हमारे युवा वाहन दुर्घटनाओं में भी अकाल मृत्यु को प्राप्त हो रहे हैं। पर उक्त परिदृश्य भारत के युवाओं का एकांगी चित्रण है, सही व संपूर्ण आकलन नहीं है। अच्छी पढ़ाई, अच्छे कॅरियर की आशा में जितनी संख्‌या में भारत के लड़के-लड़की वर्तमान में शिक्षण संस्थाओं में जा रहे हैं, उतने आज से पहले के कभी नहीं गए। आज के समय में जितनी बड़ी संख्‌या में युवक-युवतियां उच्च शिक्षण के लिए शिक्षण संस्थाओं में जा रहे हैं, उतनी बड़ी संख्‌या में हमारे पास काबिल, शिक्षा तथा शिक्षण से सरोकार रखने वाले शिक्षकों का दिन प्रतिदिन अभाव होता जा रहा है। पढ़ने-लिखने वाले विद्यार्थियों की एक वाजिब शिकायत यह है कि हमें पूरी गंभीरता से पढ़ाया नहीं जाता। उनका यह भी कहना है कि जिस हिसाब से ऊंची फीस उनसे ली जाती है, उस स्तर का शिक्षण व शिक्षक शिक्षण संस्थाओं में उपलब्ध ही नहीं है। इस समय हमारे यहां किसी भी काम को खुद होकर जवाबदारी स्वीकारने के बजाय एक-दूसरे पर जवाबदारी ढोलने की कार्यसंस्कृति का ही ज्यादा विकास दिखता है। हर कोई परिस्थिति को लेकर परेशान है, हैरान है पर इस परिदृश्य को बदलने की व्यक्तिगत व सामूहिक जवाबदारी लेने को तैयार नहीं है। ऐसा परिदृश्य होते हुए भी विश्व बाजार भारत के युवाओं को अपनी ओर तेजी से आकर्षित कर रहा है। बड़ी संख्‌या में भारत के युवा विश्व बाजार के अवसरों में अपना स्वर्णिम भविष्य देखते हुए तेजी से भागादौड़ी कर रहे हैं। इस भागदौड़ का एक दृश्य भारत में यह उभरने लगा है कि कई नए बच्चे माता-पिता से ज्यादा कमा रहे हैं। इसका प्रभाव शहरी मध्यम वर्ग पर अच्छा-खासा दिखाई देने लगा है। अब घर, परिवार, समाज में युवा वर्ग आर्थिक शक्ति के केन्द्र बनते जा रहे हैं। मध्यम वर्ग में पहले एक ही आर्थिक शक्ति थी, अब पति, पत्नी और बच्चे सब कमा रहे हैं। माता-पिता सेवानिवृत्‌ित के दौर में जितनी तनख्‌वाह पाते हैं उससे तो आजकल कई बच्चों के प्रारंभिक वेतन की शुरुआत हो रही है या उससे भी ज्यादा पा रहे हैं। इस सबका घर परिवार के सोच और व्यवहार पर अच्छा-खासा असर दिखाई दे रहा है। आज परिदृश्य यह नहीं है कि आज का युवा बड़ों की सुन नहीं रहा है वरन्‌ परिदृश्य यह है कि समाज के बूड़े-बूढ़ों और आगेवान लोगों की युवा लोगों से स्वयं होकर सीधी बात या संवाद करने की हिम्‌मत ही नहीं है। बड़े चुप हैं! क्या कहें? कैसे कहें? किसे कहें! तो फिर मन ही मन कुड़कुड़ाने या बड़बड़ाने का दौर इस समय चल रहा है। हर कोई मन ही मन बड़बड़ रहा है। मन ही मन असन्तुष्ट है, लाचार है पर देश के बड़े बड़ों और आगेवानों में खुद होकर युवा वर्ग से सीधा संवाद करने व करते रहने की ताकत ही नहीं बची। आज का युवा आने वाले समय का आगेवान होने जा रहा है। अभी भी उनसे सीधा, स्फूर्त संवाद नहीं किया तो फिर घर की जानकारी भी उनके फेसबुक अकाउंट पर ही मिलेंगी यह तय है।

गांधीवादी चिन्तक

युवा वर्ग से बड़ों का संवाद जरूरी है, वर्ना फिर घर की जानकारी भी उनके फेसबुक अकाउंट पर ही मिलेगी।

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