Tuesday, February 15, 2011

तरंगों ने बदला जीने का रंग-ढंग


सामयिक

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तरंगों ने बदला जीने का रंग-ढंग

अनिल त्रिवेदी

बातचीत करना एक कला है। बात को सुनने में रस लेना व बातचीत में यथासंभव हस्तक्षेप या भागीदारी अपने आप में कला है। आजकल हर कोई बोलना तो चाहता है पर सुनना नहीं चाहता। मनुष्य की बोलने चालने की चाह अन्तहीन है। श्रुति और स्मृति से प्रारंभ हुआ मनुष्य समाज आज तकनीकी रूप से विकसित होकर मोबाइल फोन और सीडी तक आ पहुंचा है। मनुष्यों की बोलने की आदत को ही आधुनिक मनुष्य ने इन्फॉरमेशन टेक्नोलॉजी में बदल दिया है। आज का पूरा विश्व तरंगमय हो गया है। ध्वनि तरंगों का इतना व्यापक फैलाव कभी भी नहीं हो पाया था। आज दुनिया के किसी भी कोने में अपनी बात पहुंचाना हो तो चलता-फिरता मनुष्य इस काम को करने का साधन पा गया है। मनुष्यता के इतिहास में आज तक उसका कोई आविष्कार इतनी तेजी से आम आदमी की पहुंच में नहीं आया। आज के काल में जिस तेजी से मोबाइल का लोकव्यापीकरण हुआ है उसने मनुष्य की बातचीत करने की चाह को दुनिया के सबसे बड़े नए व्यापार में बदल दिया है। अभी तक मनुष्य की आवाज स्वयं मनुष्य के लिए धन दौलत कमाने के अवसर जुटाती थी। कोई अच्छा गाता था तो सुमधुर आवाज के बल पर पैसे कमा लेता था। कथा वार्ता कहकर, भाषण देकर या नाटक करके पैसे पा जाता था। आवाज के बल पर रेडियो-टीवी में उद्‌घोषक बन जाता था। मनुष्यता के इतिहास में मोबाइल के रूप में ऐसा साधन आया जिसके कारण हर किसी के द्वारा की गई सामान्य बात, बड़े-बड़े कॉर्पोरेट घरानों के लिए अनन्त धन दौलत के महासागर में बदल गई। अभी तक जमीन जायदाद की खरीदी-बिक्री में ही दुनियाभर के व्यवसाय या घोटाले होते थे। सारी राजनीति और सत्‌ता का प्रबन्धन जमीनों के खरीदने, आवंटन, अतिक्रमण, कब्जे करने या कबाड़ने तक ही सीमित था। पर आज के काल में ध्वनि तरंगों को खरीदना-बेचना देश और दुनिया का सबसे बड़ा व्यापार और घोटालों का महाअवसर बन गया। साकार जमीन के बजाय निराकार ध्वनि तरंगे सत्‌ता की राजनीति का सबसे बड़ा आकर्षण हो गई। ध्वनि तरंगों के आवंटन में पक्षपात या बन्दरबांट ने आज भारत का सबसे बड़ा घोटाला कर डाला। मन्त्री राजा से अभियुक्त राजा तक की संचार यात्रा भारत में तरंगों के व्यापार में आज तक के सबसे बड़े भ्रष्टाचार का पर्याय बन गई। हमारे देश में भंग की तरंग में डूबना कुछ लोगों को ही अच्छा लगता था। पर ध्वनितरंगों के नशे में पूरी तरह डूब जाना आज की सत्‌ता की राजनीति और कॉर्पोरेट्‌स के व्यापार की प्रमुख व्यस्तता है। देश और दुनिया ध्वनि तरंग में समा गई है। देश के बाल, वृद्ध व युवाओं पर ध्वनि ख्ब् घंटे के साथी हो गए! तोल-मोल या सोच-समझकर बोलने की हमारी सनातन परंपरा रही पर आज मनुष्य को ललचाया जा रहा है- कर लो दुनिया मुट्ठी में। मोबाइल को दिनभर हाथ में पकड़े हम दुनियाभर को पकड़ सकते हैं। तरंगों के इस खेल में नया खेल आदमी की जिन्दगी में यह आया कि अब उसे प्रतिदिन बोलने के पैसे भी चुकाना पड़ रहे हैं। अभी तक तो ये था कि दाल-रोटी के इर्द-गिर्द ही अधिकांश जीवन चलाते थे। जिन्दगी में टी टाइम या लन्च टाइम जैसे ही प्रसंग थे। पर अब मनुष्य की जिन्दगी में टॉक टाइम का नया प्रसंग आ गया। आज के मनुष्य को सूखीसट बातचीत में मजा उस तरह नहीं आता है। गरीबी रेखा से नीच का आदमी हो या अमीरी रेखा से ऊपर का आदमी, दोनों जिन्दगियों में मुफ्‌त की रूखी-सूखी बातचीत का दौर खत्म हो गया है! वाचाल मनुष्य के हाथ में जब बिना टॉक टाइम का मोबाइल होता है तो उसकी तत्परता देखते ही बनती है। आज के अधिकांश मनुष्य बिना चाय या भोजन के खुद भूखे रहना पसन्द कर लेते हैं पर अपने मोबाइल को भूखा रखना सहन नहीं करते। आज मनुष्य की जिन्दगी में ध्वनि तरंग ने समूचे लोकजीवन के साथ ही ध्वनितंरगों की सत्‌ता और व्यापार इतना ताकतवर है कि हमारी संसद में पक्ष-विपक्ष की चहल-पहल पूरी तरह बन्द है।

गांधीवादी चिन्तक

टी टाइम और लन्च टाइम का दौर गया, अब तो टॉक टाइम का दौर-दौरा है!

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