Tuesday, February 15, 2011

विचारों के देश मैं पैसों का अखंड महाभोज


विचारों के देश मैं पैसों का अखंड महाभोज- लेखक-अनिल त्रिवेदी

भारत शुरू से ही दर्शन और विचारो का देश रहा है,लेकिन पिछले कुछ समय से यहाँ जीवन के हर क्षेत्र में विचार से ज्यादा अर्थ की ताकत निरंतर और अधिक तेजी से बढ़ रही है. यह एक ऐसा देश बनता जा रहा है,जिसमे आपको ख़ुद से भिन्न विचार वाले व्यक्ति को ख़ुद के विचार से सहमत करने के लिए विचारों की नही लोभ-लालच के साधनों हथकंडो या रणनीति की जरुरत पड़ती है|भारत में विचार का स्थान सामान्यतः लोभ-लालच या रुपयों की दुनिया के हाथों मैं केंद्रित होता जा रहा है। छोटी-मोटी सभा सोसायटी से लेकर लोकसभा जैसे सर्वोच्च सदन तक चुनकर पहुँचने के लिए परिवर्तन के वाहक विचार प्रक्रिया के स्थान पर मुद्रा का विनिमय यही आज हममे सेअधिकांश को आसन मार्ग लगने लगता है। कीसी व्यक्ति के पास बहुत पैसा है तो अधिकांश समाज उसे धनबली मानता है और उसके सानिध्य में कुछ न कुछ प्रसाद पाने की आकांक्षा या भीड़ बनाये रखने का प्रचलन हर क्षेत्र में बड रहा है,वही शुद्ध विचारशील सरस्वती पुत्र के पास शुद्ध ज्ञानार्जन की आकांक्षा लेकर आज भी इक्का-दुक्का व्यक्ति ही पहुँच पाते हैं।
विचार की कोख से जन्मा पैसा ही आज सबसे बड़ा विचारहंता हो गया। जीवन के हर क्षत्र में पैसे के अत्यधिकप्रचलन से बाहर करने की राह पकड़ ली है। यही कारण है की समाज विचार पर केंद्रित होने की बजाये पैसे पर केंद्रित होताजा रहा है। अर्थ बिना सब व्यर्थ का आदर्श जीवन हर क्षेत्र में गठरी पैठ बनता जा रहा है और अधिकांश लोगों के मन एवं जीवन में विचार निष्ठां के बजाये शुद्ध अर्थ्निष्ठा का जोर बढ़ रहा है। किसी भी तरह का पैसा समाज को सम्मोहित कर रहा है पर किसी भी किस्म का विचार समाज व्यक्ति और विचारों को सजग और चैतन्य बनने में सफल नही हो पा रहा। यह वर्तमान की सबसे बडी चुनौती है की महज पैसे की दुनिया से विचारों की दुनिया का मुकाबला कैसे करें? आज भारत की राजनीती ही नही पुरे लोकजीवन में मुद्रा का अतिरिक्त अवैध विनिमय लोकव्यवहार और दस्तूर बनता जा रहा है। आप रेल में यात्रा कर रहे है और रिजेर्वेशन चाहिए तो पैसे देकर सीट हासिल कर सकते हैं। यह एक ऐसा मान्य साधन बन गया है कही भी इस्तेमाल कर परिचित तो छोडिये अपरिचित से भी मनचाहा व्यवहार करवा सकते हैं। बच्चे में योग्यता न हो , लेकिन लाखो की कैपिटेशन फीस अदा कर मनचाही शिक्षा के लिए प्रवेश दिला सकते हैं। यह बात आम धारणा बन गई है की की जो काम नियम कायदों से सम्भव नही वह पैसे से तत्काल सम्भव हो सकता है। इसी का नतीजा है की भारत के लोकमानस में यह भ्रम आम हो गया है की पैसे की ताकत नियम कायदे से अधिक है। हमारे राज्य संवेधानिक रूप से नियम-कायदे से चलने वाले राज्य हैं। राज्य अपनी कार्यप्रणाली में किसी के साथ भेदभावपूर्ण व्यवहार नही कर सकते और यदि करते हैं तो देश के नागरिक को यह संवेधानिक उपचार उपलब्ध है की वह राज्य द्वारा किए गए भेदभाव के विरूद्ध न्यायलय में जाकर अपना अधिकार हासिल करे । इस कानूनी स्थिति के मौजूद होते हुए भी समाज में यह ग़लत धारणा बनती जा रही है की क़ानून तो दिखावटी गहना है। बिना लेन-देन कुछ भी नही होता,होगा भी तो देर से। इसलिए तुंरत कार्य कराने का व्यवहारिक तरीका क़ानून नही पैसों का लेनदेन है।
संविधान के होते हुए भी राज्य और समाज पैसे के आधार पर विशिष्टता या तत्परता से कोई कम कराने की कार्यप्रणाली विकसित कर रहे है। जैसे देश के कई धार्मिक स्थलों में ज्यादा चढावा या नकद पैसा देकर दर्शन करने वाले विशिष्टता का तमगा लिए लाइन में खडे हुए बिना सीधे गर्भग्रह में जाकर दर्शन कर सकते हैं। इस व्यवस्था पर गुस्सा या भेदभाव का अहसास होने के बजाये हम इस व्यवहारिक व्यवस्था की संज्ञा देते हैं। आपसी बातचीत में यह आम बोलचाल का मुहावरा बन गया की नौकरी में निश्चित एवं निर्धारित वेतन को सूखी तनख्वाह माना जाता है। जिन पदों पर वेतन के आलावा कोई अतिरिक्त राशि पाने की गुंजाईश न हो,उन पदों पर नियुक्त अधिकांश लोग अपनी नियति को कोसते रहते हैं की यहाँ पर तो आगे बढ़ने का मौका ही नही है। सूखी तनख्वाह में कैसे गुजारा होगा? यह दुःख आज के समाज का सबसे बड़ा दुःख बनता जा रहा है। यही वर्तमान का खुला रहस्य की हममे से आधिकांश को कंही कोई गड़बड़ नजर नही आती,क्योंकि हम तमाम तरह की आर्थिक गडबडी को लोभ-लालचवश निजी और सार्वजनिक जीवन का लोकव्यवहार बनाते जा रहे हैं।

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