Tuesday, February 15, 2011

अनपढों के सहज भाव पढ़े लिखों के जटिल अभाव- अनिल त्रिवेदी


आज की दुनिया में पढ़े-लिखे समझदार लोगो की जिंदगी में प्रायः सरलता-सहजता का अभाव क्यो महसूस होने लगा है? अधिकतर अनपढों की जिंदगी आज की दुनिया में भी उतनी ही सहज-सरल दिखाई पड़ती है जितनी पहले की दुनिया में थी। क्या पढ़ाई-लिखाई जीवन की सरलता को जटिलता में बदलने वाली वैचारिक क्रिया है? जिस सहजता-सरलता से अनपढ़ आदमी खाली जमीन पर बैठ या सो लेता है। पढ़े लिखे व्यक्ति को खाली जमीन पर बैठना और सोना या लेटना एक असहज या जटिल कार्य लगता है। उसे खाली जमीन और शरीर के बीच कोई व्यवस्था चाहिए । गाँवों में बसने वाले करोड़ो स्त्री-पुरूष-बच्चे उम्रभर नंगे पैर ही सहजता से जीते रहते है। हम है की घर के अन्दर नंगे पैर रहने में भी दिक्कत  महसूस करते है।

पढ़े-लिखे समझदारो की जिंदगी की एक विशेषता यह है कि इस वर्ग का अधिकांश हिस्सा जो-जो बातें भी अपने जीवनकाल में सोचता रहता है उसकी एक भी बात वह स्वयं भले ही अपने आचरण या जीवन में न माने, अक्सर उसे लगता है बाकी सब लोगो को उसकी बात मानना चाहिए। निरक्षरों की विशेषता यह है की वे जैसा जीवन जीते है या जीवन में जो सोचते है उसे दूसरे भी माने ही, यह अपेक्षा भाव उनमे नही होता, यह भाव जरुर होता है की उनकी जिंदगी मेहनत मजूरी के बल पर खुशहाल हो जावे। यह भी अपेक्षा होती है कि जो काम उन्होंने किया है उसका निर्धारित या तय पैसा उन्हें जरूर मिल जावे । यदि नही भी मिलता है तो असीम धीरज भरी लाचारी के साथ वे चुप रहते और यह मान लेते है कि चलो आज नही तो कल या बाद में पैसा मिल जावेगा। ये कहीं भाग तो नही जावेंगे।

अधिकतर पढ़े लिखे लोगों के साथ एक दिक्कत यह है की वे स्वांग ऐसा रचते है कि वे जानते सबकुछ हैं। अनपढ़- पढ़े लिखों की उल जलूल बाते या बेसिरपैर की सलाह को भी चुपचाप सुनता है और पढ़े लिखों के सामने सिर हिलाकर उस सलाह से सहमति जताता है। भले ही बाद में पढ़े लिखों कि बिन मांगी सलाहों पर मन ही मन या खिल-खिलाकर हँसता हो कि देखो साब ने कैसी बिना सिर पैर की सलाह दी। वह प्रायः पढ़े लिखों की बात का आमने-सामने खंडन नही करता है।

अनपढ़ लोग अपना अज्ञान स्वीकारने में कभी झिझकते नही हमेशा समवेत स्वर में उदघोषणा करते रहते हैं की साब हमको क्या मालूम हम तो अनपढ़ हैं। पर पढ़े लिखों को हमेशा अपने पढ़े लिखे होने की विशिष्टता का गर्व होता है उन्हें यदि किसी अनपढ़ ने टोक दिया तो तत्काल आमने सामने ही टोकने वाले को हाथ के हाथ ही निपटा देते है कि तुम अंगूठा छाप हमें सिखाओगे ! इसमे उम्र का भी कोई लिहाज वे नही रखते। पढ़े लिखों में बहुत कम हजारों में एक ही होता है जो सहजता से अपने अज्ञान को स्वीकार करने का साहस करता है जबकि अनपढ़ अपना अज्ञान भाव सहजता से स्वीकारते हैं।

अनपढ़ खेतिहर लोग अधिकतर श्रमपूर्वक उत्पादक कार्यों को सम्पन्न करते है वे शरीर की ऊर्जा से मूलभूत वस्तुओं के उत्पादक कार्यों में ही अपनी ज़िन्दगी खपा देते हैं। पढ़े लिखे लोगों का बहुत कम हिस्सा मूलभूत उत्पादक वस्तुओं उत्पादन के काम में लगा होता है पर कुछ पढ़े लिखे लोग ऐसे भी होते है जो बिना पढ़े लिखे लोगों की ज़िन्दगी को खुशहाल बनाने के उपायों को खोजने या विपन्नों अनपढों के जीवन को संवारने में ही अपनी ज़िन्दगी का सर्वस्व कुर्बान कर देते हैं।

पगडण्डी पर चलने वाला निरक्षर आदिवासी जब शहर में आता है तो वे दस पन्द्रह की संख्या में हो या दो चार की वे हमेशा एक के पीछे एक रेल के डब्बों की तरह ही चलते हैं। पढ़े लिखे समझदार शहरी जिन्हें इस बात की पूरी जानकारी है की सड़कों पर वाहनों की संख्या इतनी अधिक है , कही भी जगह नही है भले ही वे दो हो या दस पन्द्रह हमेशा झुंड बना कर बेतरतीब रूप से रास्ते में रूकावट की तरह चलते है। उन्हें यह ख्याल भी नही आता की निरक्षर आदिवासियों का शहरी सड़क पर पगडण्डी पर चलने की तरह एक के पीछे एक चलने का तरीका अस्त व्यस्त शहरी यातायात के आत्मघाती दुष्परिनामो से बचने का एक सहज सरल तरीका है।

अधिकांश पढ़े लिखे समझ सम्पन्न लोग , पसंद ना पसंद के आधार पर खाना खाते समय अपनी थाली में कुछ न कुछ जूठन छोड़ ही देते हैं। पर अधिकांश निरक्षर विपन्न लोगो के पास तो खाने की थाली ही नही होती। वे हाथ में रोटी लेकर उसपर मिर्च की चटनी या सब्जी रखकर अपना खाना खा लेते है। प्रायः उनकी रोटी दोनों समय की भूख की मात्रा से कम ही होती है ऐसे में जूठा छोड़ने की संस्कृति यहाँ विकसित ही नही हो सकी। अक्सर पढ़े लिखे और ज्ञानवान लोग देश-दुनिया को बैठे-बैठे यन्त्र एवं तंत्र के सहारे चलाने वाले लोग होते हैं जिसमे अधिकांश को अन्न उपजाने की कष्टप्रद प्रक्रिया और उसमे लगी हाड़तोड़ मेहनत का अंदाज़ ही नही होता इसलिए अधिकांश लोग स्वाद के या पसंद ना पसंद के आधार पर खाते है जब की अनपढ़ विपन्न लोग भोजन शरीर के पोषण के लिए जो कुछ भी मिल जाए उसे ही जीवन का आधार मानकर पेट भरने के लिए खा लेते है। ऐसे लोग स्वयं भूखे रहकर भी देश दुनिया का पेट अन्न से भरने के लिए धूप, बारिश, ठण्ड और रात या अंधेरे की परवाह किए बिना अपने से ज्यादा दूसरे के पेट के लिए अन्न उपजाने का जिंदगी भर जतन करते रहते है।

पढ़े लिखे और बिना पढ़े लिखे की ज़िन्दगी का जीवन क्रम निरंतर चलता रहता है। लाखों अभावों के बाद भी अधिकांश अनपढ़ और विपन्न लोग जीवन के सारे भावों को अपने जीवन काल में महसूस करते रहते हैं पर अधिकांश पढ़े लिखे सपन्नो के मन में जीवन के भावों का इतना अधिक उतार चढाव लगातार चलता रहता है कि समस्त साधनों, सम्पदाओ से भरपूर जीवन होते हुए भी अधिकांश पढ़े लिखों के मन में जीवन के समस्त भावों की वह सहजता , सरलता और संपन्नता नही मिल पाती जो हमें हमारी पढ़ी लिखी दृष्टि से विपन्न और अनपढ़ कहलाने वाले सम्पदाहीन लोगों के जीवन में प्रायः सरलता और सहजता से दिखाई पड़ती है।

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